यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
‌[कायाकल्प
 


कला में वह निपुण थे। हुक्काम को सलाम करने का उन्हें मरज था । हाकिमों के दिये हुए सैकड़ों प्रशसा पत्र उनकी अतुल सम्पत्ति थे। उन्हें वह बङे गर्व से दूसरी का दिखाया करते थे। कोई नया हाकिम आये, उससे जरूर रब्त-जब्त कर लेते थे। हुक्काम ने चक्रधर का ख्याल करने के वादे भी किये थे, लेकिन जब परीक्षा का नतीजा निकला और मुन्शीजीने चक्रधर से कमिश्नर के यहाँ चलने को कहा, तो उन्हाने जाने से साफ इनकार किया।

मुन्शीनीने त्योरी चढ़ाकर पूछा-क्यो ? क्या घर बैठे तुम्हे नोकरी मिल जायगी?

चक्रघर मेरी नौकरी करने की इच्छा नहीं है।

वज्रधर-~यह खब्त तुम्हें कब से सवार हुया ? नौकरी के सिवा और करोगे ही क्या?

चक्रधर-मैं आजाद रहना चाहता हूँ।

वज्रधर-आजाद रहना था, तो एम० ए० क्यो पास किया ?

चक्रधर इसीलिए कि आजादी का महत्व समझूंँ।

उस दिन से पिता और पुत्र में आये-दिन बमचख मचती रहती थी। मुंशीजा बुढापे में भी शौकीन आदमी थे। अच्छा सा खाने और अच्छा पहनने की इच्छा अभी तक बनी हुई थी। अब तक इसी खयाल से दिल को समझाते थे कि लइका नोकर हो जायगा तो मौज करेंगे।अब लड़के का रंग देखकर बार-बार झुँझलाते और उमे काम-चोर, घमण्डी, मूर्ख कहकर अपना गुस्सा उतारते रहते थे । अभी तुम्हें कुछ नहीं सूझती, जब मैं मर जाऊँगा तब सूझेगो । तब सिर पर हाथ रखकर रोओगे | लाख बार कह दिया-बेटा, यह जमाना खुशामद और सलामी का है। तुम विद्या के सागर बने बैठे रहो, कोई सेंत भो न पूछेगा। तुम बैठे आजादी का मजा उठा रहे हो और तुम्हारे पीछेवाले वाजी मारे जाते हैं। वह जमाना लद गया, जब विद्वानो की कद्र थी, अब तो विद्वान् टके सेर मिलते है, कोई बात नहीं पूछता । जैसे और भी चीजें बनाने के कारखाने खुल गये हैं, उसी तरह विद्वानों के कारखान है, और उनकी संख्या हर साल बढती जाती है।

चक्रधर पिता का अदब करते थे, उनका जवाब तो न देते, पर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए उन्होंने जो मार्ग तय कर लिया था, उससे वह न हटते थे। उन्हें यह हास्यासद मालूम होता था कि आदमी केवल पेट पालने के लिए आधी उम्र पढ़ने में लगा दे। अगर पेट पालना ही जीवन का आदर्श हो, तो पढने का जरूरत ही क्या है। मजदूर एक अच्छर भी नहीं जानता, फिर भी वह अपना और अपने बाल बच्चों का पेट बड़े मजे से पाल लेता है । विद्या के साथ जीवन का आदर्श कुछ ऊँचा न हुआ, तो पढना व्यर्थ है। विद्या को जीविका का साधन बनाते उन्हें लज्जा आती थी। वह भूखों मर जाते, लेकिन नौकरी के लिए आवेदन पत्र लेकर कहीं न नाते । विद्याभ्यास के दिनों में भी वह सेवा कार्य में अग्रसर रहा करते थे