तुम्हारे हिसाब से मैं घर में हूँ ही नहीं? बहुत दिन तो हो गये रूठे, क्या जन्मभर रूठे ही रहोगे? क्या बात है? इतने उदास क्यों हो?
विशालसिंह ने ठिठककर कहा—तुम्हारी ही लगाई हुई आग को तो शांत कर रहा था, पर उलटे हाथ जल गये। यह क्या रोज रोज तूफान खड़ा किया करती हो। चार दिन की जिन्दगी है, इसे हँस खेलकर नहीं काटते बनता। मैं तो ऐसा तंग हो गया हूँ कि जी चाहता है कि कहीं भाग जाऊँ। सच कहता हूँ, जिन्दगी से तंग आ गया। यह सब आग तुम्ही लगा रही हो।
वसुमती—कहाँ भागकर जाओगे? नयी-नवेली बहू को किस पर छोड़ोगे? नये ब्याह का कुछ सुख तो उठाया ही नहीं?
विशालसिंह—बहुत उठा चुका, जी भर गया।
वसुमती—बस, एक ब्याह और कर लो, एक ही और, जिसमें चौकड़ी पूरी हो जाय।
विशालसिंह—क्यों बैठे बैठे जलाती हो? विवाह क्या किया था, भोग विलास करने के लिए, या तुमसे कोई बड़ी सुन्दरी होगी।
वसुमती—अच्छा, आओ, सुनते जाओ।
विशालसिंह—जाने दो, लोग बाहर बैठे होंगे।
वसुमती—अब यही तो नहीं अच्छा लगता। अभी घण्टे भर वहाँ बैठे चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहे तो नहीं देर हुई, मैं एक क्षण के लिए बुलाती हूँ तो भागे जाते हो। इसी दोअक्खी की तो तुम्हें सजा मिल रही है।
यह कहकर वसुमती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया, घसीटती हुई अपने कमरे में ले गयी और चारपाई पर बैठाती हुई बोली—औरतों को सिर चढ़ाने का यही फल है। उसे तो तब चैन आये, जब घर में अकेली वही रहे। जब देखो तब अपने भाग्य को रोया करती है, किस्मत फूट गयी, मां बाप ने कुएँ में झोंक दिया, जिन्दगी खराब हो गई। यह सब मुझसे नहीं सुना जाता, यही मेरा अपराध है। तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है। पूछो, तुझे कोई जबरदस्ती निकाल लाया था, या तेरे मां-बाप की आँखें फूट गयी थीं। वहाँ तो यह मसूबे थे कि बेटी मुँहजोर है ही, जाते-ही-नाते राजा को अपनी मुट्ठी में करके रानी बन बैठेगी! क्या मालूम था कि यहाँ उसका सिर कुचलने को कोई और भी बैठा हुआ है। यही बातें खोलकर कह देती हूँ, तो तिलमिला उठती है और तुम दौड़ते हो मनाने। बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है। दो दिन, चार दिन, दस दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं। यह निरन्तर का नियम है कि लोहे को लोहा ही काटता है। कुमानुस के साथ कुमानुस बनने ही से काम चलता है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने नारियों के विषय में जो कहा है, बिलकुल सच है।
विशालसिंह—यहाँ वह खटवाँस लेकर पड़ी, अब पकवान कौन बनाये?
वसुमती—तो क्या जहाँ मुर्गा न होगा, वहाँ सवेरा ही न होगा? आखिर जब वह