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कायाकल्प]
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रोहिणी—और क्या करते हो। जब घर में कोई न्याय करनेवाला नही रहा, तो इसके सिवा और क्या होगा। सामने तो चुड़ैल की तरह बैठी हुई हैं, जाकर पूछते क्यों नहीं? मुँह में कालिख क्यों नहीं लगाते? दूसरा पुरुष होता, तो जूतों से बात करता, सारी शेखी किरकिरी हो जाती। लेकिन तुम तो खुद मेरी दुर्गति कराना चाहते हो। न जाने क्यों तुम्हें ब्याह का शौक चर्राया था।

कुँवर साहब ज्यों ज्यों रोहिणी का क्रोध शान्त करने की चेष्टा करते थे, वह और भी बफरती जाती थी और बार-बार कहती थी, तुमने मेरे साथ क्यों ब्याह किया। यहाँ तक कि अन्त में वह भी गर्म पड़ गये और बोले—और पुरुष स्त्रियों से विवाह करके कौनसा सुख देते हैं, जो मैं तुम्हें नहीं दे रहा हूँ? रही लड़ाई-झगड़े की बात। तुम न लड़ना चाहो, तो कोई जबरदस्ती तुमसे न लड़ेगा। आखिर, रामप्रिया भी तो इसी घर में रहती है!

रोहिणी—तो मैं स्वभाव ही से लड़ाकू हूँ?

विशालसिंह—यह मैं थोड़े ही कहता हूँ।

रोहिणी—और क्या कहते हो? साफ साफ कहते हो, फिर मुकरते क्यों हो? मै स्वभाव से ही झगड़ालू हूँ। दूसरों से छेड़-छेड़कर लड़ती हूँ। यह तुम्हें बहुत दूर की सूझी। वाह! क्या नयी बात निकाली है। कहीं छपवा दो, तो खासा इनाम मिल जायगा।

विशालसिंह—तुम बरबस बिगड़ रही हो। मैंने तो दुनिया की बात कही थी और तुम अपने ऊपर ले गयीं। रोहिणी—क्या करूँ, भगवान ने बुद्धि ही नहीं दी। वहाँ भी 'अन्धेर नगरी और चौपट राजा' होंगे। बुद्धि तो दो ही प्राणियो के हिस्से में पड़ी है, एक आपकी ठकुराइन के—नही नहीं, महारानी के—और दूसरे आपके। जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में ठूँस दी गयी।

विशालसिह—अच्छा, उठकर पकवान बनाती हो कि नहीं? कुछ खबर है, नौ बज रहे हैं।

रोहिणी—मेरी बला जाती है! उत्सव मनाने की लालसा नहीं रही।

विशालसिंह—तो तुम न उठोगी?

रोहिणी—नहीं, नहीं, नहीं, या और दो-चार बार कह दूँ?

वसुमती सायबान में बैठी हुई दोनों प्राणियो की बातें तन्मय होकर सुन रही थी, मानो कोई सेनापति अपने प्रतिपक्षी की गति का अध्ययन कर रहा हो, कि कब यह चूके और कब मैं दबा बैठूँ। क्षण क्षण में परिस्थिति बदल रही थी। कभी अवसर आता हुआ दिखायी देता था, फिर निकल जाता था, यहाँ तक कि अन्त में प्रतिद्वन्द्वी की एक भद्दी चाल ने उसे अपेक्षित अवसर दे ही दिया। विशालसिह को मुँह लटकाये रोहिणी की कोठरी से निकलते देखकर बोली—क्या मेरी सूरत देखने की कसम खा ली