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[कायाकल्प
 

क्यों नहीं मँगवा लेतीं? अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी-भर बरतन भेज दें। क्या जबरदस्ती दूसरों को भूखों मारेंगी?

रोहिणी रसाई से बाहर निकलकर बोली—बहन, जरा मुँह सँभालकर बात करो। देवताओं का अपमान करना अच्छा नहीं।

वसुमती—अपमान तो तुम करती हो, जो व्रत के दिन यों बन ठनकर अठिलाती फिरती हो। देवता रंग-रूप नहीं देखते, भक्ति देखते हैं।

रोहिणी—मैं बनती-ठनती हूँ, तो दूसरों की आँखें क्यों फूटती हैं? भगवान् के जन्म के दिन भी न बनूँ-ठनूँ? उत्सव में तो रोया नहीं जाता!

वसुमती—तो और बनो ठनो, मेरे अँगूठे से। आँखें क्यों फोड़ती हो? आँखें फूट जायेंगी, तो चिल्लू भर पानी भी तो न दोगी।

रोहिणी—क्या आज लड़ने ही पर उतारू होकर आयी हो, क्या? भगवान् सब दुःख दें, पर बुरी संगत न दें। लो, यही गहने कपड़े आँखों में गढ़ रहे हैं? न पहनूँगी। जाकर बाहर कह दे, पकवान प्रसाद किसी हलवाई से बनवा ले। मुझे क्या, मेरे मन का हाल भगवान् आप जानते हैं, पड़ेगी उनपर, जिनके कारण यह सब हो रहा है।

यह कहकर रोहिणी अपने कमरे में चली गयी। सारे गहने कपड़े उतार फेंके और मुँह ढाँपकर चारपाई पर पड़ रही। ठाकुर साहब ने यह समाचार सुना, तो माथा कूटकर बोले—इन चाण्डालिनों से आज शुमोत्सव के दिन भी शान्त नहीं बैठा जाता। इस जिन्दगी से तो मौत ही अच्छी। घर में आकर रोहिणी से बोले—तुम मुँह ढाँपकर सो रही हो, या उठकर पकवान बनाती हो? रोहिणी ने पड़े-पड़े उत्तर दिया—फट पड़े वह सोना जिससे टूटें कान। ऐसे उत्सव से बाज आयी, जिसे देखकर घरवालों की छाती फटे।

विशालसिंह—तुमसे तो बार-बार कहा कि उनके मुँह न लगा करो। एक चुप सौ वक्ताओं को हरा देता है। दो बातें सुन लो, तो तीसरी बात कहने का साहस न हो। फिर तुमसे बड़ी भी तो ठहरी, यों भी तुमको उनका लिहाज करना ही चाहिए।

जिस दिन वसुमती ने विशालसिंह को व्यंग्य-बाण मारा था, जिसकी कथा हम कह चुके हैं, उसी दिन से उन्होंने उससे बोलना चालना छोड़ दिया था। उससे कुछ डरने लगे थे, उसके क्रोध की भयंकरता का अन्दाज़ पा लिया था। किन्तु रोहिणी क्यों दबने लगी। यह उपदेश सुना तो झुँझलाकर बोली—रहने भी दो, जले पर नमक छिड़कते हो। जब बड़ा देख-देखकर जले, बात-बात पर कोसे, तो कोई कहाँ तक उसका लिहाज करे। इन्हें मेरा रहना जहर लगता है, तो क्या करूँ। घर छोड़कर निकल जाऊँ? वह इसी पर लगी हुई हैं। तुम्हीं ने उन्हें सिर चढ़ा लिया है। कोई बात होती है, तो मुझी को उपदेश करने दौड़ते हो, सीधा पा लिया है न! उनसे बोलते हुए तो तुम्हारा भी कलेजा काँपता है। तुम न शह देते तो उनकी मजाल थी कि यों मुझे आँखें दिखातीं!

विशालसिंह—तो क्या मैं उन्हें सिखा देता हूँ कि तुम्हें गालियाँ दें?