पिता सिरहाने खड़े थे और तुम मेरे पैरों पर सिर रखे रो रही थीं! याद है?
देवप्रिया—हाय प्राणनाथ। वह दिन भी भूल सकती हूँ?
राजकुमार—एक क्षण में मेरी आँखें खुल गयीं। पर जो कुछ देखा था, वह सब आँखों में फिर रहा था, मानों बचपन की बातें हों। मैने महात्मा से पूछा—मेरे माता पिता जीवित हैं? उन्होंने एक क्षण आँखें बन्द करके सोचने के बाद कहा—उनका देहावसान हो गया है। तुम्हारे शोक में दोनों घुल-घुलकर मर गये।
मैं—और मेरी स्त्री?
महात्मा—वह अभी जीवित है।
मैं—किस नगर में है?
महात्मा—काशी के समीप जगदीशपुर में। किन्तु तुम्हारा वहाँ जाना उचित नहीं, यह ईश्वरी इच्छा के विरुद्ध होगा और संस्कारों के क्रम को पलटना अनिष्ट का मूल है।
मैंने उस समय तो कुछ न कहा, पर उसी क्षण मैंने तुमसे मिलने का दृढ़ संकल्प कर लिया। मुझे अब वहाँ एक एक क्षण एक-एक युग हो गया। दो दिन तो मैं किसी तरह रहा, तीसरे दिन मैंने महात्माजी से विदा होकर प्रस्थान कर दिया। महात्माजी बड़े प्रेम से मुझसे गले मिले और चलते चलते ऐसी क्रिया बतलायी, जिसके द्वारा हम अपनी श्रायु और बल को इच्छानुसार बढा सकते हैं। तब मुझे गले से लगाकर एक यान पर बैठा दिया। यान मुझे हरिद्वार पहुँचा कर आपही आप लौट गया। यह उनके यानों की विशेषता है। हरिद्वार से मैं सीधा हर्षपुर पहुँचा और एक सप्ताह तक माता-पिता की सेवा में रहकर यहाँ आ पहुँचा। तुमसे मिलने के पहले मैं कई बार इधर निकला। यहाँ की हरएक वस्तु मेरी जानी-पहचानी मालूम होती थी। दो-चार पुराने दोस्त भी दिखायी दिये, पर उनसे मै बोला नहीं। एक दिन जगदीशपुर की सैर भी कर आया। ऐसा मालूम होता था कि मेरी बाल्यावस्था वहीं गुजरी हो। तुमसे मिलने के पहले कई दिन गहरी चिन्ता में पड़ा रहा। एक विचित्र शंका होती थी। अकस्मात् तुमसे पार्क में मुलाकात हो गयी। कह नहीं सकता, तुम्हें देखकर मेरे चित्त की क्या दशा हुई। ऐसा जी चाहता था, दौड़कर हृदय से लगा लूँ। महात्मा के अन्तिम शब्द भूल गये और मैं वहाँ तुमसे मिल गया।
देवप्रिया ने रोते हुए कहा—प्राणनाथ, आपके दर्शन पाते ही मेरा हृदय गद्गद हो गया। ऐसा मालूम हुआ, मानो आपसे मेरा पुराना परिचय है, मानों मैंने आपको कहीं देखा है। आपने एक दृष्टि में मेरे मन के उन भावों को जाग्रत कर दिया, जिन्हें मेरी विलासिता ने कुचल कुचलकर शिथिल कर दिया था। स्वामी। मैं आपके चरणों को स्पर्श करने योग्य नहीं हूँ, लेकिन जब तक जीऊँगी, तब तक आपकी स्मृति को हृदय में संचित रखूँगी।
राजकुमार—प्रिये, तुम्हें मालूम है, विवाह का सम्बन्ध देह से नहीं आत्मा से है। क्या आत्मा अनन्त और अमर नहीं?