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[कायाकल्प
 

यदि तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हो गये, तो तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जायगी। यह भी सुनने में आया कि कई भिक्ष उनके दर्शनों की चेष्टा में प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। उनमें इतना विद्युत्तेज है कि साधारण मनुष्य उनके सम्मुख खड़ा ही नहीं हो सकता। उनकी नेत्र ज्योति बिजली की तरह हृत्स्थल में लगती है। जिसने यह आघात सह लिया, उसकी तो कुशल है, जो नहीं सह सकता, वह वहीं खड़ा-खड़ा भस्म हो जाता है। कोई योगी ही उनसे साक्षात् कर सकता है।

यह बातें सुन-सुनकर मेरी भक्ति और भी दृढ़ होती चली जाती थी। मरूँ या जिऊँ; पर उनके दर्शन अवश्य करूँगा, यह धारणा मन में जम गयी। योगी की क्रियाएँ तो पहले ही करने लगा था, इसलिए मुझे विश्वास था कि मैं उनके तेज का सामना कर सकता हूँ। दिव्य-ज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में मर जाना भी श्रेय की बात होगी। क्या था, क्या हूँगा? कहाँ मैं आया हूँ, कहाँ जाउँगा। इन स्वप्नों का उत्तर किसी ने आज तक न दिया और न दे सकता है। वह तो अपने अनुभव की बात है। हम उसका अनुभव ही कर सकते हैं, किसी को बता नहीं सकते। इस महान उद्योग में मर जाना भी मनुष्य के लिए गौरव की बात है।

एक वर्ष गुजर गया और महात्माजी के दर्शन न हुए। न जाने कहाँ जाकर अन्तर्धान हो गये। वहाँ से न किसी को पत्र लिख सकता था, न संसार की कुछ खबर मिलती थी। कभी कभी जी ऐसा घबराता कि चलकर अन्य सांसारिक प्राणियों की भाँति जीवन का सुख भोूँग। इसमें रखा ही क्या है कि मैं क्या था और क्या हूँगा। पहले तो यही निश्चित नहीं कि मुझे यह ज्ञान प्राप्त भी होगा और हो भी गया, तो उससे मेरा या संसार का क्या उपकार होगा। बिना इन रहस्यों के जाने भी जीवन को उच्च और पवित्र बनाया जा सकता है। वहाँ की सुरम्यता अजीर्ण हो गयी, वह कमनीय प्राकृतिक छटा आँखों में खटकने लगी। विवश होकर स्वर्ग में भी रहना पड़े, तो वह नरक तुल्य हो जाय।

अन्त में एक दिन मैंने निश्चय किया कि अब जो होना हो, सो हो, इस पर्वत-शृंग पर अवश्य चढ़ूँगा। यह निश्चय करके मेंने चढ़ना शुरू किया, लेकिन दिन गुजर गया और मैं सौ गज से आगे न जा सका। मेरी चढ़ाई उन विज्ञान के खोजियों की सी न थी, जो सभी साधनों से लैस होते हैं। मैं अकेला था, न कोई यन्त्र, न मन्त्र, न कोई रक्षक, न प्रदर्शक, भोजन का भी ठिकाना नहीं, प्राणों पर खेलना था। पर करता क्या! ज्ञान के मार्ग में यन्त्रों का जिक्र ही क्या। आत्म-समर्पण तो उसकी पहली क्रिया है। जानता था कि मर जाऊँगा, किन्तु पड़े-पड़े मरने से उद्योग करते हुए मरना अच्छा था।

पहली रात मैंने एक चट्टान पर बैठकर काटी। बार-बार झपकियाँ आती थीं, पर चौक-चौंक पड़ता था। जरा चूका और रसातल पहुँचा। इतनी कुशल थी कि गरमी के दिन आ गये थे। हिम का गिरना बन्द था, पर जहाँ इतना आराम था, वहाँ पिघली हुई हिम-शिलाओं के गिरने से क्षण-मात्र में जीवन से हाथ धोने की शंका भी थी। वह