रानी—(सोचकर) हाँ, कुछ ठीक याद नहीं आता। शायद तब आपकी उम्र कुछ कम थी; मगर थे आप ही।
राजकुमार से गम्भीर भाव से कहा—हाँ प्रिये, मैं ही था। तुमने मुझे अवश्य देखा है, हम और तुम एक साथ रहे हैं और इसी घर में। यही मेरा घर था। तुम स्त्री थीं, मैं पुरुष था। तुम्हें याद है, हम और तुम इसी जगह, इसी हौज के किनारे शाम को बैठा करते थे। अब पहचाना?
देवप्रिया की आँखें फिर राजकुमार की ओर उठीं। आइने की गर्द साफ हो गयी।
बोली—प्राणेश! तुम्हीं हो इस रूप में!!
यह कहते-कहते वह मूर्च्छित हो गयीं!
९
रानी देवप्रिया का सिर राजकुमार के पैरों पर था और आँखों से आँसू बह रहे थे।' उनकी ओर ताकते हुए विचित्र भय हो रहा था। उसे कुछ कुछ सन्देह हो रहा था कि मैं सो तो नहीं रही हूँ। कोई मनुष्य माया के दुर्भेद्य अंधकार को चीर सकता है? जीवन और मृत्यु के मध्यवर्ती अपार विस्मृत-सागर को पार कर सकता है। जिसमें यह सामर्थ्य हो, वह मनुष्य नहीं, प्रेत योनि का जीव है। यह विचार आते ही रानी का सारा शरीर काँप उठा, पर इस भय के साथ ही उसके मन में उत्कण्ठा हो रही थी कि उन्हीं चरणों से लिपटी हुई इसी क्षण प्राण त्याग दूँ। राजकुमार उसके पति हैं, इसमें तो सन्देह न था, सन्देह केवल यह था कि मेरे साथ यह कोई प्रेत-लीला तो नहीं कर रहे हैं। वह रह रहकर छिपी हुई निगाहों से उनके मुख की ओर ताकती थी, मानों निश्चय कर रही हो कि पति ही हैं या मुझे भ्रम हो रहा है।
सहसा राजकुमार ने उसे उठाकर बैठा दिया और उसके मनोभावों को शान्त करते हुए बोले—हाँ प्रिये, मैं तुम्हारा वही चिरसंगी हूँ, जो अपने प्रेमाभिलाषायी को लिये हुए कुछ दिनों को तुमसे जुदा हो गया था। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि कई यात्रा करके लौटा आ रहा हूँ। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, और जिसके भय से संसार काँपता है, वह केवल एक यात्रा है। उस यात्रा में भी मुझे तुम्हारी याद आती रहती थी। विकल होकर आकाश में इधर-उधर दौड़ा करता था। प्रायः सभी प्राणियों की यही दशा थी। कोई अपने संचित धन का अपव्यय देख-देखकर कुढ़ता था, कोई अपने बालबच्चों को ठोकरें खाते देखकर रोता था। वे दृश्य इस मर्त्यलोक के दृश्यों से कहीं करुणा जनक, कहीं दुःखमय थे। कितने ही ऐसे जीव दिखायी दिये, जिनके सामने यहाँ सन्मान समस्तक झुकता था, वहाँ उनका नग्न स्वरूप देखकर उनसे घृणा होती थी। यह कर्मलोक है, वहाँ भोग लोक; और कर्म का दण्ड कर्म से कही भयङ्कर होता है। मैं भी उन्हीं अभागों में था। देखता था कि मेरे प्रेम-सिंचित उद्यान को भाँति-भाँति के पशु कुचल रहे हैं, मेरे प्रणय के पवित्र सागर में हिंसक जल-जन्तु दौड़ रहे हैं, और देख देखकर क्रोध से विह्वल हो जाता था। अगर मुझमें वज्र गिराने की सामर्थ्य होती, तो