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[ कायाकल्प
 

दूं। हॉ, इसका वादा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद भर कौड़ी कौड़ी सूद के साथ चुका दूंगा । सच्ची बात तो यह है कि मुझे पहले ही मालुम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपए देने पर राजी न होगा । ये बला के चघह होते हैं। मुझे तो इनके नाम से चिढ है । मेरा वश चले, तो ग्राज इन सबों को तोप पर उड़ा दूं। जितना डर मुझे इनसे लगता है, उतना साँप मे भी नहीं लगता। इन्हीं के हाथों ग्रान मेरी यह दुर्गति है, नहीं तो इस गयी बीती दशा में भी यादमी होता। इन नर पिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया । पिताजी ने केवल पाँच हजार लिये थे, जिनके पचास हजार हो गये । और मेरे तीन गाँव, जो इस वक्त दो लाख को सस्ते ये, नीलाम हो गये। पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहाँ श्रमी यह बातें हो ही रही थी कि जनानखाने में से कलह शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियो मे सग्राम छिड़ा हुया है। ठाकुर साहब ये कर्कश पाब्द सुनते ही विकल हो गये, उनके माथे पर बल पड़ गये, मुख तेजहीन हो गया । यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी । यही काँटा था, जो नित्य उनके हृदय मे खटका करता था । उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती था। वह अत्यन्त गर्वशीला थी;नाक पर मक्खी भी न बैठने देती । उनको तलवार सदैव म्यान से बाहर रहती थी। वह अपनी सपत्नियों पर उसी भाँति शासन करना चाहती थी, जैसे कोई सास अपनी बहुश्री पर करती है । वह यह भूल जाती थी कि ये उनकी बहुएँ नहीं, सप नयाँ हैं । जो उनकी हाँ म हाँ मिनाता, उसपर प्राण देती थी, किन्तु उनकी इच्छा के विरुद्ध जरा भी कोई बात हो जातो, तो सिंहनी का सा विकराल रूप धारण कर लेती थी।

दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थी । उनके पिता पुगने खिलाड़ी थे, दो दस्ती झाड़ते थे, दो-धारी तलवार से लडते थे । रामप्रिया दया और विनय की मूर्ति थी, बड़ी विचारशील और वाक्य-मधुर, जितना कोमल अग था, उतना ही कोमल हृदय भी था। वह घर में इस तरह रहती थी मानों थी ही नही। उन्हें पुस्तको से विशेष रुचि थी, हरदम कुछ न कुछ पढ़ा लिखा करती थीं। सब से अलग-विलग रहती थी, न किसी के लेने मे, न देने में, न किसी से वैर, न प्रेम।

तीसरी महिला का नाम रोहिणी या । ठाकुर साहब का उनपर विशेष प्रेम या, और वह भी प्रापण से उनकी सेवा करती थी। इनमे प्रेम की मात्रा अधिक थी या माया को इसका निर्णय करना कठिन था। उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहन उनकी सौतो से बात चीत भी करें। वसुमनी कर्कशा होने पर भी मलिन हृदयान थी, जो कुछ मन में होता, वही मुख म । एक बार मुँह से बात निकाल डालने पर फिर उसके हृदय पर उसका कोई चित न रहता था। रोहिणी द्वेष को पालती थी, जैसे- चिड़िया अपने अण्डे को सेतो है । वह जितना मुँह से कहती थी, उससे कही अधिक मन मे रखती थी।