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कायाकल्प]
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नहीं? चक्रधर को उसके व्यवहार में इतना मातृ-स्नेह भरा मालूम होता था, मानों उससे उनका पुराना परिचय है! चार बजते-बजते ख्वाजा महमूद के आने की खबर पाकर चक्रधर बाहर चले आये। और भी कितने ही आदमी मिलने आये थे। शाम तक उन लोगों से बातें होती रहीं। निश्चय हुआ कि एक पचायत बनायी जाय और आपस के झगड़े उसी के द्वारा तब हुआ करें। चक्रधर को भी लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया। रात को जब अहल्या और वागीश्वरी छत पर लेटी, तो वागीश्वरी ने पूछा--अहल्या, सो गयी क्या?

अहल्या-नहीं अम्मा, जाग तो रही हूँ।

वागीश्वरी~हाँ, आज तुझे क्यों नींद आयेगी। इनसे व्याह करेगी?

अहल्या--अम्मा, मुझे गालियाँ दोगी, तो मैं नीचे जाकर लेटुंगी, चाहे मच्छर भले ही नोच खाये।

वागीश्वरी- अरे, तो मै कौन-सी गाली दे रही हूँ। क्या व्याह न करेगी? ऐसा अच्छा वर तुझे और कहाँ मिलेगा?

अहल्या--तुम न मानोगी, लो, मैं जाती हूँ।

वागीश्वरी-मै दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ। तुम्हारी इच्छा हो, तो बातचीत की जाय। अपनी ही बिरादरी के हैं। कौन जाने, राजी हो जायें।

अहल्या -सब बातें जानकर भी?

वागीश्वरी-तुम्हारे बाबूजी ने सारी कथा पहले ही सुना दी है।

अहल्या--तो कही माने न?

वागीश्वरी--टालो मत, दिल की बात साफ-साफ कह दो।

अहल्या--तुम मेरे दिल का हाल मुझसे अधिक जानती हो, फिर मुझसे क्यों पूछती हो? वागीश्वरी वह धनी नहीं, याद रखो।

अहल्या--मै धन की लोडी कभी नहीं रही।

वागीश्वरी--तो अब तुम्हें सशय में क्यो रखूँ। तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने है के लिए इन्हें काशी से लाये हैं। इनके पेस और कुछ हो या न हो, हृदय अवश् है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगो के हिस्सों में आता है। ऐसा स्वामी पाक तुम्हारा जीवन सफल हो जायगा।

अहल्या ने डबडबायी हुई आँखों से वागीश्वरी को देखा, पर मुंह से कुछ न बोली कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टाचार का रूप धारण कर लेती है। उसका मौलिक रूप वही है, जो आँखों से बाहर निकलते हुए कॉपता और लजाता है।


मुशी वज्रधर उन रेल के मुसाफिरों में थे, जो पहले तो गाड़ी मे खड़े होने व जगह मांगते हैं, फिर बैठने की फिक्र करने लगते हैं और अन्त में सोने की तैयारी क