मुंशी—तो और क्या भाग्यहीन हूँ? जिसके ऐसा देवरूप पोता हो, ऐसी देव-कन्या सी बहू हो, मकान हो, जायदाद हो, चार को खिलाकर खाता हो, क्या वह अभागा है? जिसकी इज्जत-आबरू से निभ जाय, जिसका लोग यश गावें, वही भाग्यवान् है। धन गाड़ लेने ही से कोई भाग्यवान् नहीं हो जाता।
आज राजा साहब के यहाँ भी उत्सव था; इसलिए शङ्खधर इच्छा रहते हुए भी न ठहर सके।
स्त्रियाँ निर्मला के चरणों को अञ्चल से स्पर्श करके विदा हो गयीं, तो शङ्खघर खड़े हुए। निर्मला ने रोते हुए कहा—कल मैं तुम्हारी बाट देखती रहूँगी।
शङ्खधर ने कहा—अवश्य आऊँगा।
जब मोटर पर बैठ गये, तो निर्मला द्वार पर खड़ी होकर उन्हें देखती रही। शङ्खधर के साथ उसका हृदय भी चला जा रहा था। युवकों के प्रेम में उद्विग्नता होती है, वृद्धों का प्रेम हृदय-विदारक होता है। युवक जिससे प्रेम करता है, उससे प्रेम की आशा भी रखता है। अगर उसे प्रेम के बदले प्रेम न मिले, तो वह प्रेम को हृदय से निकालकर फेंक देगा। वृद्ध-जनों की भी क्या यही आशा होती है? वे प्रेम करते हैं और जानते हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ न मिलेगा। या मिलेगी, तो दया। शङ्खधर की आँखों मे आँसू न थे, हृदय में तड़प न थी, वह यों प्रसन्नचित्त चले जा रहे थे, मानो सैर करके लौटे जा रहे हों।
मगर निर्मला का दिल फटा जाता था और मुन्शी वज्रधर की आँखों के सामने अंधेरा छा रहा था।
५३
कई दिन गुजर गये। राजा साहब हरि-भजन और देवोपासना में व्यस्त थे। इधर ५-६ वर्ष से उन्होंने किसी मन्दिर की तरफ झाँका भी न था। धर्म-चर्चा का बहिष्कार-सा कर रखा था। रियासत में धर्म का खाता ही तोड़ दिया गया था। जो कुछ धार्मिक जीवन था, वह वसुमती के दम से। मगर अब एकाएक देवताओं में राजा साहब की फिर श्रद्धा हो आयी थी। धर्म खाता फिर खोला गया और जो वृत्तियाँ बन्द कर दी गयी थीं, वे फिर से बाँधी गयीं। राजा साहब ने फिर चोला बदला। वह धर्म या देवता किसी के साथ निःस्वार्थ प्रेम नहीं रखते थे। जब सन्तान की ओर से निराशा हो गयी, तो उनका धर्मानुराग भी शिथिल हो गया। जब अहल्या और शंखधर ने उनके जीवन क्षेत्र में पदार्पण किया, तब फिर धर्म और दान-व्रत की ओर उनकी रुचि हुई। जब शंखधर चला गया और ऐसा मालूम हुआ कि अब उसके लौटने की आशा नहीं है, तो राजा साहब ने धर्म की अवहेलना ही नहीं की, बल्कि देवताओं के साथ जोर-शोर, से प्रतिरोध भी करने लगे। धर्म-संगत बातों को चुन-चुनकर बन्द किया! अधर्म को बातें चुन चुनकर ग्रहण कीं। शंखधर के लौटते ही उनका धर्मानुराग फिर जाग्रत हो गया। सम्पत्ति मिलने ही पर तो रक्षकों की आवश्यकता होती है।