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कायाकल्प]
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स्वीकार न करते।

इसके बाद शंखधर ने अपनी यात्रा का, अपनी कठिनाइयो का और पिता से मिलने का सारा वृत्तान्त कहा।

यों बातें करते हुए मुंशीनी राजा साहब के पास जा पहुँचे। राजा साहब ने बड़े आदर से उसका अभिवादन किया और बोले—आप तो इधर का रास्ता ही भूल गये।

मुन्शीजी—महाराज, अब आपका और मेरा सम्बन्ध और प्रकार का है। ज्यादा आऊँ जाऊँ तो आप ही कहेंगे, यह अब क्या करने आते हैं, शायद कुछ लेने की नीयत से आते होंगे। कभी जिन्दगी में धनी नहीं रहा; पर मर्यादा की सदैव रक्षा की है।

राजा—आखिर आप दिन-भर बैठे बैठे वहाँ क्या करते हैं, दिल नहीं घबराता? (मुस्कराकर) समधिनजी में भी तो अब आकर्षण नहीं रहा?

मुन्शीजी—वाह, आप उस आकर्षण का मजा क्या जानेंगे? मेरा तो अनुभव है कि स्त्री-पुरुप का प्रेम-सूत्र दिन-दिन दृढ़ होता जाता है। अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए। आप भी कुछ दिन शांति का आनन्द उठा लें।

राजा—विचार तो मेरा भी है; लेकिन मुन्शीजी, न-जाने क्या बात है कि जबसे शंखधर आया है; क्यों शङ्का हो रही है कि इस मंगल में कोई न-कोई विघ्न अवश्य पड़ेगा। दिल को बहुत समझाता हूँ, लेकिन न जाने क्यों यह शंका अन्दर से निकलने का नाम नहीं लेती।

मुन्शीजी—आप ईश्वर का नाम लेकर तिलक कीजिए। जब टूटी हुई आशाएँ पूरी हो गयीं, तो अब सब कुशल ही होंगी। आज मेरे यहाँ कुछ आनन्दोत्सव होगा। आजकल शहर में अच्छे-अच्छे कलावन्त आये हुए हैं, सभी आयेंगे। आपने कृपा की, तो मेरे सौभाग्य की बात होगी।

राजा—नहीं मुंशीजी, मुझे तो क्षमा कीजिए। मेरा चित्त शान्त नहीं। आपसे सत्य कहता हूँ मुंशीजी, आज अगर मेरा प्राणान्त हो जाय, तो मुझसे बढ़कर सुखी प्राणी संसार में न होगा। अगर प्राण दे देने की कोई सरल तरकीब मुझे मालूम होती, तो जरूर दे देत । शोक की पराकाष्ठा देख ली। आनन्द की पराकाष्ठा भी देख ली। अब और कुछ देखने की आकांक्षा नहीं है। डरता हूँ, कहीं पलड़ा फिर न दूसरी ओर झुक जाय।

मुंशीजी देर तक बैठे राजा साहब को तस्कीन देते रहे, फिर सब महिलाओ को अपने यहाँ आने का निमन्त्रण देकर और शंखधर को गले लगाकर वह घोड़े पर सवार हो गये। इस निर्द्वन्द्व जीव ने चिन्ताओं को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। धन की इच्छा थी, ऐश्वर्य की इच्छा थी; पर उनपर जान न देते थे, संचय करना तो उन्होंने सीखा ही न था। थोड़ा मिला तब भी अभाव रहा, बहुत मिला तब भी अभाव रहा। अभाव से जीवन-पर्यन्त उनका गला न छुटा। एक समय था, जब स्वादिष्ट भोजनों को तरसते थे। अब दिल खोलकर दान देने को तरसते हैं। क्या पाऊँ और,