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कायाकल्प]
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मनोरमा—अगर रोक सकूँगी, तो रोकूँगी।

गुरसेवक—उसको तुम नहीं रोक सकती, मनोरमा! और न मैं ही रोक सकता हूँ।

मनोरमा कुछ उत्तेजित होकर बोली—कुछ मुँह से कहिए भी तो।

गुरुसेवक—प्रजा राजा साहब की अनीति से तङ्ग आ गयी है।

मनोरमा—यह तो मैं बहुत पहले से जानती हूँ। भारत भी तो अंग्रेजों की अनीति से तङ्ग आ गया है। फिर इससे क्या?

गुरुसेवक—मैं विश्वासघात नहीं कर सकता।

मनारमा—भैया, बता दीजिए, नहीं तो पछताइएगा।

गुरसेवक—मैं इतना नीच नही हूँ। बस, इतना ही बता देता हूँ कि राजा साहब से कह देना, विवाह के दिन सावधान रहें।

गुरसेवक लपककर बाहर चले गये। मनोरमा स्तम्भित-सी खड़ी रह गयी, मानो हाथ के तोते उड़ गये हों। इस वाक्य का आशय उसकी समझ में न आया। हाँ इतना समझ गयी कि बरात के दिन कुछ न कुछ उपद्रव अवश्य होनेवाला है!

कल ही विवाह का दिन था। सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। सन्ध्या हो गयी थी। प्रातःकाल बरात यहाँ से चलेगी। ज्यादा सोचने-विचारने का समय नहीं था। इसी वक्त राजा साहब को सचेत कर देना चाहिए। कल फिर अवसर हाथ से निकल जायगा। उसने राजा साहब के पास जाने का निश्चय किया; मगर पुछवाये किससे कि राजा साहब हैं या नहीं? इस वक्त तो वह रोज सैर करने जाते हैं। आज शायद सैर करने न गये हों; मगर तैयारियों में लगे होंगे।

मनोरमा उसी वक्त राजा साहब के दीवानखाने की ओर चली। इस संकट में वह मान कैसे करती? मान करने का समय नहीं है। चार वर्ष के बाद आज उसने पति के शयनागार में प्रवेश किया। जगह वही थी, पर कितनी बदली हुई। पौदों के गमले सूखे पड़े थे, चिड़ियों के पिंजरे खाली। द्वार पर चिक पड़ी हुई थी। राजा साहब कहीं बाजार जाने के लिए कपड़े पहने तैयार थे। मेज पर बैठे जल्दी-जल्दी कोई पत्र लिख रहे थे; मनोरमा को देखते ही कुरसी से चौंककर उठ बैठे और बाहर की ओर चले, मानो कोई भयंकर वस्तु सामने आ गयी हो।

मनोरमा ने सामने खड़े होकर कहा—मैं आपसे एक बहुत जरूरी बात कहने आयी हूँ। एक क्षण के लिए ठहर जाइए।

राजा साहब कुछ झिझकर खड़े हो गये। जिस अत्याचारी के आतङ्क से सारी रियासत त्राहि-त्राहि कर रही थी, जिसके भय से लोगों के रक्त सूख जाते थे, जिसके सम्मुख जाने का साहस किसी को नहीं होता था, उसे ही देखकर दया आती थी। वह भवन, जो किसी समय आसमान से बातें करता था, इस समय पृथ्वी पर मस्तक रगड़ रहा था। यह निराश की सजीव मूर्ति थी, दलित अभिलाषाओं की जीती-जागती तसवीर। पराजय की करुण प्रतिमा, मर्दित अभिमान का आर्त्तनाद। और वह स्नेह का

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