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[कायाकल्प
 


की पगहिया खोल दी गयी। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस 'नौजवान' की 'हिम्मत' और 'जवाँमर्दी' को नारीफ करते हुए चले।

चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल पाये यार उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देसकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा या रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली। अगर यहाँ कुरबानी हो जाती, तो हम मुँह दिखाने लायक भी न रहते।

एक बूदा--आज तुमने वह काम कर दिखाया, जो सैकड़ो आदमियों के रक्त पात से भी न होता।

चक्रधर-मैंने कुछ भी नहीं किया। यह उन लोगा की शराफत थी कि उन्होंने मेरी अनुनय-विनय सुन ली।

यशोदा०--अरे भाई, रोने का भी तो दृग होता है। अनुनय विनय हमने भी सैकड़ा ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी और उलझतो हो गयी। आइए, आपके घाव को मरहम-पट्टी तो हो जाय!

चक्रधर को कमरे में बिठाकर यशोदानन्दन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा - आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी। भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहल्या, आज तुम्हारी पाक परीक्षा होगी।

अहल्या-वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानो के हाथों से गौ की रक्षा को?

यशोदा०--वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। बेचारे रास्ते में मिल गये। यहाँ सैर करने आये है। मसूरी जायेंगे।

अहल्या-वागीश्वरी से) अम्माँ, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे। दादा, मैं कोठे पर बैठी सब तमाशा देख रही थी। जब हिन्दुओं ने उनपर पत्थर फेकना शुरू किया, तो ऐसा क्रोध आता था कि वहीं से फटकारूँ। बेचारे के सिर से खून निकलने लगा, लेकिन वह जरा भी न बोले। जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए, तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सब के सब उनपर टूट न पड़े। बड़े ही साहसी आदमी मालूम होते हैं? सिर में चोट आयी है क्या?

यशोदा०-हाँ, खून जम गया है, लेकिन उन्हें उसकी कुछ परवा ही नहीं। डॉक्टर को बुला रहा हूँ।

वागीश्वरी-खा पी चुकें, तो जरा देर के लिए यहीं भेज देना। मेरे लडकों की जोड़ी तो हैं?

यशोदा०-अच्छी बात है। जरा सफाई कर लेना।

पड़ोस में एक डॉक्टर रहते थे। यशोनन्दन ने उन्हें बुलाकर घाव पर पट्टी वधवा दी। फिर देर तक बातें होती रहीं। धीरे-धीरे सारा मुहल्ला जमा हो गया। कई श्रद्धालु-जनों ने तो चक्रधर के चरण छुए। आखिर भोजन का समय पाया।