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कायाकल्प]
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हूँ। कभी-कभी उनपर जी झुँझलाता है। जो कुछ कमाया, उड़ा दिया। तुम तो देखती ही थीं। ऐसा कौन सा दिन जाता था कि द्वार पर चार मेहमान न आ जाते हों? लेकिन फिर दिल को समझाती हूँ कि उन्होंने किसी बुरे काम में तो धन नहीं उड़ाया। जो कुछ किया, दूसरों के उपकार ही के लिए किया। यहाँ तक कि अपने प्राण भी दे दिये। फिर मैं क्यों पछताऊँ और क्यों रोऊँ? यश खेत में थोड़े ही मिलता है, मगर मैं तो अपनी बातों में लग गयी। चलो, हाथ-मुँह धो डालो, कुछ खा-पी लो, तो फिर बातें करूँ।

लेकिन अहल्या हाथ-मुँह धोने न उठी। वागीश्वरी की आदर्श पति भक्ति देखकर उसकी आत्मा उसका तिरस्कार कर रही थी। अभागिनी! इसे पति-भक्ति कहते हैं। सारे कष्ट झेलकर स्वामी की मर्यादा का पालन कर रही है। नैहरवाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालाँकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता। सारे कष्ट झेलती है और खुशी से झेलती है। एक तू है कि मैके की सम्पत्ति देखकर फूल उठी, अन्धी हो गयी। राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवा ही न रही, तूने सम्पत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की। वह तुझे अपने साथ ले जाना चाहते थे, तू न गयी, राज्य सुख तुझसे न छोड़ा गया! रो, अपने कर्मों को।

वागीश्वरी ने फिर कहा—अभी तक तू बैठी ही है। हाँ, लौडी पानी नहीं लायी न, कैसे उठेगी। ले, मैं पानी लाये देती हूँ, हाँथ-मुँह धो डाल। तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियाँ सेकती हूँ। देख, तुझे अब भी भाती है कि नहीं। तू मेरी रोटियों का बहुत बखान करके खाती थी।

अहल्या ये स्नेह में सने शब्द सुनकर पुलफित हो उठी। इस 'तू' में जो सुख था; वह 'आप' और 'सरकार' में कहाँ। बचपन के दिन आँखों में फिर गये। एक क्षण के लिए उसे अपने सारे दुख विस्मृत हो गये। बोली—अभी तो भूख-प्यास नहीं है अम्माँजी, बैठिए कुछ बातें कीजिए। मैं आपसे अपने दुःख की कथा कहने के लिए व्याकुल हो रही हूँ। बताइए, मेरा उद्धार कैसे होगा?

वागीश्वरी ने गम्भीर भाव से कहा—पति-प्रेम से वंचित होकर स्त्री के उद्धार का कौन उपाय है, बेटी? पति ही स्त्री का सर्वस्व है। जिसने अपना सर्वस खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा? जिसको लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्यागकर ही पति को पायेगी। तू इतनी कर्त्तव्य-भ्रष्ट कैसे हो गयी, यह मेरी समझ में ही नहीं आया। यहाँ तो तू धन पर इतना जान न देती थी। ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली और तू उसमें चूक गयी। जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगी, तुझे उस त्यागी पुरुष के, दर्शन न होंगे।

अहल्या—अम्माँजी, सत्य रहती हूँ, मैं केवल शंखधर के हित का विचार करके उनके साथ न गयी।