कर दिये। बिना जाने-बुझे किसी को मेहमान बना लेने का यही फल होता है। अब मैं आज कहीं न जाऊँगा। तुम भोजन कर लो और मुझसे जो कुछ कहना हो कहो। मैं ऐसे जिद्दी लड़के को अपने साथ और न रखूँगा। तुम्हारा घर कहाँ है? यहाँ से कितनी दूर है?
शंखधर—मेरे तो कोई घर ही नहीं।
चक्रधर—माता-पिता तो होंगे? वह किस गाँव में रहते हैं?
शंखधर—यह मुझे कुछ नहीं मालूम। पिताजी तो मेरे बचपन ही में घर से चले गये और माताजी का पाँच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला।
चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ, मानो पृथ्वी नीचे खिसकी जा रही है, मानों वह जल में बहे जा रहे हैं। पिता बचपन ही में घर से चले गये और माताजी का पाँच साल से कुछ समाचार नहीं मिला? भगवान्, क्या यह वही नन्हा-सा बालक है! वही, जिसे अपने हृदय से निकालने की चेष्टा करते हुए आज १६ वर्षों से अधिक हो गये!
उन्होंने हृदय को सँभालते हुए पूछा—तुम पाँच साल तक कहाँ रहे बेटा, जो घर नहीं गये?
शंखधर—पिताजी को खोजने निकला था और जब तक वह न मिलेंगे, लौटकर घर न जाऊँगा।
चक्रधर को ऐसा मालूम हुआ मानो पृथ्वी डगमगा रही है, मानो समस्त ब्रह्माण्ड एक प्रलयकारी भूचाल से आन्दोलित हो रहा है। वह सायबान के स्तम्भ के सहारे बैठ गये और एक ऐसे स्वर में बोले, जो आशा और भय के वेगों को दबाने के कारण क्षीण हो गया था। यह प्रश्न न था; बल्कि एक जानी हुई बात का समर्थन मात्र था। तुम्हारा नाम क्या है बेटा? इस प्रश्न का उत्तर क्या वही होगा, जिसकी सम्भावना चक्रधर को विकल और पराभूत कर रही थीं? संसार में क्या ऐसा एक ही बालक है, जिसे उसका बाप बचपन में छोड़कर चला गया हो? क्या ऐसा एक ही किशोर है, जो अपने बाप को खोजने निकला हो? यदि उसका उत्तर वही हुआ, जिसका उन्हें भय था, तो वह क्या करेंगे? उनके सामने एक कठिन समस्या उपस्थित हो गयी। वह धड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाये थे, जैसे कोई अपराधी अपना कर्म-दण्ड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाये खड़ा हो ।
शंखधर ने जवाब दिया—मेरा तो नाम शंखधरसिंह है।
चक्रधर—और तुम्हारे पिता का क्या नाम है?
शंखधर—मुंशी चक्रधर कहते हैं।
चक्रधर—घर कहाँ है?
शंखधर—जगदीशपुर!
सर्वनाश! चक्रधर को ऐसा ज्ञात हुआ कि उनकी देह से प्राण निकल गये है, मानो उनके चारों ओर शून्य है। 'शंखधर!' बस, यही एक शब्द उस प्रशस्त शून्य