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[कायाकल्प
 

गया था। उसी वक्त इधर चला।

चक्रधर—रात को कहीं ठहरे नहीं?

शंखधर—यही भय था कि शायद आप कहीं और आगे न बढ़ जायँ।

चक्रधर—कुछ भोजन भी न किया होगा?

शंखधर—भोजन की तो ऐसी इच्छा न थी। आपके दर्शन हुए, मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे संकट कट जायँगे। मैं आपका यश सुनकर आया हूँ। आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं।

चक्रधर—बेटा, संकट काटने वाला ईश्वर है, मैं तो उनका क्षुद्र सेवक हूँ, लेकिन पहले कुछ भोजन कर लो और आराम से सो रहो। मुझे कई रोगियों को देखने जाना है। मैं शाम को लौटूँगा, तो तुमसे बातें होंगी। क्या कहूँ, मेरे कारण तुम्हें इतना कष्ट उठाना पड़ा।

शंखधर ने मन में कहा—इस परम आनन्द के लिए मैं क्या नहीं सह सकता था! अगर मुझे मालूम हो जाता कि अग्नि-कुण्ड में जाने से आपके दर्शन होंगे, तो क्या मैं एक क्षण का भी विलम्ब करता। कदापि नहीं। प्रकट में उसने कहा—मुझे तो यह स्वर्ग-यात्रा-सी मालूम होती थी। भूख, प्यास, थकान कुछ भी नहीं थी।

चक्रधर का चित्त अस्थिर हो गया। उस युवक के रूप और वाणी में न-जाने कौन-सी बात थी, जो उनके मन में उससे बात चीत करने की प्रबल इच्छा हो रही थी। रोगियों को देखने न जाना चाहते थे, मन बहाना खोजने लगा। रोगियों को दवा तो दे ही आया हूँ, उनकी चेष्टा भी कुछ ऐसी चिन्ताजनक नहीं, जाना व्यर्थ है। जरा पूछना चाहिये कि यह युवक कौन है? क्यों मुझसे मिलने के लिए इतना उत्सुक है। कितना सुशील बालक है! इसकी वाणी में कितना विनय है और स्वरूप तो देवकुमारों का-सा है। किसी उच्च-कुल का युवक है।

लेकिन फिर उन्होंने सोचा—मेरे न जाने से रोगियों को कितनी निराशा होगी! कौन जाने, उनकी दशा बिगड़ गयी हो। जाना ही चाहिए। तब तक यह बालक भी तो आराम कर लेगा। बेचारा सारी रात चलता रहा। मैं जानता, तो बेंदों में टिक गया होता।

एक आदमी पानी लाया। शंखधर ने मुँह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले, लेकिन चक्रधर ने मना किया—हाँ हाँ यह क्या? अभी पानी न पियो। रात-भर कुछ खाया नहीं और पानी पीने लगे। आओ, कुछ भोजन कर लो।

शङ्खधर—बड़ी प्यास लगी है।

चक्रधर—पानी कहीं भागा तो नहीं जाता। कुछ खाकर पीना, और वह भी इतना नहीं कि पेट में पानी डोलने लगे।

शङ्खधर—दो ही घूँट पी लूँ। नहीं रहा जाता।

चक्रधर ने आकर उसके हाथ से लोटा छीन लिया और कठोर स्वर में कहा—अभी तुम एक बूँद भी पानी नहीं पी सकते। क्या जान देने पर उतारू हो गये हो?