यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
३०९
 

हो। राजा साहब ऐसे व्यस्त थे कि किसी से बात करने की भी उन्हें फुरसत न थी। कहीं सोनारों के पास बैठे अच्छी नक्काशी करने की ताकीद कर रहे है। कहीं दर्जियों के पास बैठे हुए मशीन सिलाई पर जोर दे रहे हैं। कहीं जौहरियों के पास बैठे जवाहरात परख रहे हैं। उनके अरमानों का वारापार ही न था। मन की मिठाई घी शक्कर की मिठाई से कम स्वादिष्ट नहीं होती।


४४

शङ्खधर को होश आया, तो अपने को मन्दिर के बरामदे में चक्रधर की गोद में पड़ा हुआ पाया। चक्रधर चिन्तित नेत्रों से उसके मुँह की ओर ताक रहे थे। गाँव के कई आदमी पास-पास खड़े पंखा झल रहे थे। आह! आज कितने दिनों के बाद शंखधर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है! वह पिता की गोद में लेटा हुआ है! आकाश के निवासियों, तुम पुष्य की वर्षा क्यों नहीं करते?

शङ्खधर ने फिर आँखें बन्द कर लीं। उसकी चिर-सन्तप्त आत्मा एक अलौकिक शीतलता, एक अपूर्व तृप्ति, एक स्वर्गीय आनन्द का अनुभव कर रही थी। इस अपार सुख को वह इतनी जल्द न छोड़ना चाहता था। उसे अपनी वियोगिनी माता की याद आयी। वह उस दिन का स्वप्न देखने लगा, जब वह अपनी माता को भी इस परम आनन्द का अनुभव करायेगा, उसका जीवन सफल करेगा।

चक्रधर ने स्नेह-मधुर स्वर में पूछा—क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है?

कितने स्नेह-मधुर शब्द थे! किसी के कानों ने कभी इतने कोमल शब्द सुने हैं? भगवान् इन्द्र भी आकर उससे बोलते, तो क्या वह इतना गौरवान्वित हो सकता था?

'क्यों बेटा, कैसी तबीयत है'—वह इसका क्या जवाब दे? अगर कहता है—अब मैं अच्छा हूँ, तो इस सुख से वंचित होना पड़ेगा। उसने कोई उत्तर नहीं दिया। देना भी चाहता, तो उसके मुँह से शब्द न निकलते। उसका जी चाहा, इन चरणों पर सिर रखकर खूब रोये। इससे बढ़कर और किसी सुख की वह कल्पना ही न कर सकता था। संसार की कोई वस्तु कभी इतनी सुन्दर थी? वायु और प्रकाश, वृक्ष और वन, पृथ्वी और पर्वत कभी इतने प्यारे न लगते थे। उनकी छटा ही कुछ और हो गयी यो; उनमें कितना वात्सल्य था, कितनी आत्मीयता!

चक्रधर ने फिर पूछा—क्यों बेटा कैसी तबीअत है?

शंखधर ने कातर-स्वर से कहा—अब तो अच्छा हूँ। आप ही का नाम बाब भगवानदास है?

चक्रधर—हाँ, मुझी को भगवानदास कहते हैं।

शंखधर—मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूँ। बहुत दूर से आया हूँ। मैंने बेंदों में आपकी खबर पायी थी। वहाँ मालूम हुआ कि आप साईंगंज चले गये हैं। वहाँ से साईंगंज चला। सारी रात चलता रहा; पर साईंगंज न मिला। एक दूसरे गाँव में जा पहुँचा, वह जो पर्वत के ऊपर बसा हुआ है। वहाँ मालूम हुआ कि मैं रास्ता भूल