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[कायाकल्प
 

यही शंखधर है। उसके वर्ण रूप और वेष में इतना परिवर्तन हो गया है कि शायद अहल्या भी उसे देखकर चौंक पड़ती। यह वह तेजस्वी किशोर नहीं, उसकी छाया मात्र है। उसका मास गल गया है, केवल अस्थि-पंजर-मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो। मानसिक ताप, वेदना और विषाद की उसके मुख पर ऐसी गहरी रेखा है कि मालूम होता है, उसके प्राण अब निकलने के लिए अधीर हो रहे हैं। उसकी निस्तेज आँखों में आकांक्षा और प्रतीक्षा की झलक की जगह अब घोर नैराश्य प्रतिबिम्बित हो रहा था—वह नैराश्य जिसका परितोष नहीं। वह सजीव प्राणी नहीं, किसी अनाथ का रोदन या किसी वेदना की प्रतिध्वनि-मात्र है। पाँच वर्ष के कठोर जीवन संग्राम ने उसे इतना हताश कर दिया है कि कदाचित् इस समय अपने उपास्यदेव को सामने देखकर भी उसे अपनी आँखों पर विश्वास न आयेगा!

एक रमणी ने उसकी ओर देखकर पूछा—कहाँ से आते हो परदेसी, बीमार मालूम होते हो?

शंखधर ने आकाश की ओर अनिमेष नेत्रों से देखते हुए कहा—बीमार तो नहीं हूँ माता, दूर से आते आते थक गया हूँ।

यह कहकर उसने अपनी खँजरी उठा ली और उसे बजाकर यह पद गाने लगा—

बहुत दिनों तक मौन-मन्त्र
मन मन्दिर में जपने के बाद।
पाऊँगी जब उन्हें प्रतीक्षा—
के तप में तपने के बाद।
ले तब उन्हें अंक में नयनों—
के जल से नहलाऊँगी।
सुमन चढ़ाकर प्रेम-पुजारिन—
मैं उनकी कहलाऊँगी।
ले अनुराग आरती उनकी—
तभी उतारूँगी सप्रेम।
स्नेह सुधा नैवेद्य रूप में—
सम्मुख रक्खूँगी कर प्रेम।
ले लूँगी वरदान भक्ति-वेदी—
पर बलि हो जाने पर।
साध तभी मन की साधूँगी—
प्राणनाथ के आने पर।

इस क्षीणकाय युवक के कण्ठ में इतना स्वर लालित्य, इतना विकल अनुराग था। कि रमणियाँ चित्रवत् खड़ी रह गयीं। कोई कुएँ में कलसा डाले हुए उसे खींचना भूल गयी, कोई कलसे से रस्सी का फन्दा लगाते हुए उसे कुएँ में डालना भूल गयी और