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[कायाकल्प
 

सहसा एक पत्थर किसी तरफ से आकर चक्रवर के सिर मे लगा। खून की धारा बह निकली, लेकिन चक्रधर अपनी जगह से हिले नहीं । सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है। अगर मेरा खून और कई जानों की रक्षा कर सके, तो इससे उत्तम कौन सी मृत्यु होगी।

फिर दूसरा पत्थर श्राया, पर अव को चक्रधर को चोट न लगी। पत्थर कानों के पास से निकल गया ।

यशोदानन्दन गरजकर बोले- यह कौन पत्थर फेंक रहा है ? सामने क्यों नहीं याता? क्या वह समझता है कि उसी ने गो रक्षा का ठीका ले लिया है ? अगर वह बड़ा वीर है तो क्यों नहीं चन्द कटम प्रागे श्राफर अपनी वीरता दिखाता ? पीछे खड़ा पत्थर क्यों फेकता है ?

एक अावाज-धर्म-द्रोहियों को मारना अधर्म नहीं है ?

यशोदानन्दन-जिसे तुम धर्म का द्रोही समझते हो, वह तुमसे कहीं सञ्चा हिन्दू है।

एक अावाज-सच्चे हिन्दू वही तो होते हैं, जो मोके पर बगले झॉकने लगे और शहर छोडकर दो चार दिन के लिए खिसक जायें ।

कई यादमी-~यह कौन मन्त्री पर आक्षेप कर रहा है.? कोई उसकी जमान पकड़ कर क्यों नहीं खींच लेता ?

यशोदानन्दन-श्राप लोग सुन रहे हैं, मुझपर जैसे-कैसे टोप लगाये जा रहे हैं । मैं सच्चा हिन्दू नही हूँ, मैं मौका पड़ने पर बगले झाँकता हूँ और जान बचाने के लिए शहर से भाग जाता हूँ। ऐसा अादमी अापका मन्त्री बनने के योग्य नहीं है | आप उस श्रादमी को अपना मन्त्री बनायें, जिसे आप सच्चा हिन्दू समझते हों। मैं धर्म से पहले अपने यात्म गौरव की रक्षा करना चाहता हूँ।

कई प्रादमी-महाशय, श्रापको ऐसे मुँहफट आदमियों की बात का खयाल न करना चाहिए।

यशोदा०—यह मेरी पचीस बरसों की सेवा का उपहार है । जिस सेवा का फल अपमान हो, उसे दूर हो से मेरा सलाम है ।

यह कहते हुए मुशी यशोदानन्दन घर की तरफ चले । कई आदमियों ने उन्हें रोकना चाहा, कई श्रादमी उनके पैरो पडने लगे, लेकिन उन्होंने एक न मानी। वह तेजस्वी आदमी थे। अपनी सस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भॉति शासन करना चाहते थे ।अालोचनायों को सहन करने की उनमे सामर्थ्य ही न थी।

उनके जाते ही यहाँ आपस में 'तू तू, मैं-मैं होने लगी। एक दूसरे पर आक्षेप करने लगा। गालियों की नौवत आयी, यहाँ तक कि दो चार श्रादमियों से हाथा-पाई मी हो गयी।