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[कायाकल्प
 

लगा लिया और आँसुओं के वेग को दबाती हुई बोली—बेटा, तुम्हारा उठने को जी न चाहता हो, तो यहीं लाऊँ। बैठे-बैठे कुछ थोड़ा-सा खा लो।

शङ्खधर—अच्छा, खा लूँगा अम्माँ, किसी से खाना भेजवा दो, तुम क्यों लाओगी।

अहल्या एक क्षण में छोटी-सी थाली में भोजन लेकर आयी और शंखधर के सामने रखकर बैठ गयी।

शंखधर को इस समय खाने की रुचि न थी, यह बात नहीं थी। अब तक उशे निश्चित रूप से अपने पिता के विषय में कुछ न मालूम था। वह जानता था कि वह किसी दूसरी जगह आराम से होंगे। आज उसे यह मालूम हुआ था कि वह संन्यासी हो गये हैं, अब वह राजसी भोजन कैसे करता? इसीलिए उसने अहल्या से कहा था कि भोजन किसी के हाथ भेज देना, तुम न आना। अब यह थाल देखकर वह बड़े धर्म संकट में पड़ा। अगर नहीं खाता, तो अहल्या दुखी होती है और खाता है, तो कौर मुँह में नहीं जाता। उसे खयाल आया, मै यहाँ चाँदी के थाल में मोहनभोग उड़ाने बैठा हूँ और बाबूजी पर इस समय न जाने क्या गुजर रही होगी। बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होगें, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं। वह थाली पर बैठा; लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा। अहल्या उसके मन का भाव ताड़ गयी और स्वयं रोने लगी। कौन किसे समझाता?

आज से अहल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शङ्खधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाय। वह उसे अकेले कहीं खेलने तक न जाने देती, उसका बाजार भी आना-जाना बन्द हो गया। उसने सबको मना कर दिया कि शङ्खधर के सामने उसके पिता की चर्चा न करें। यह भय किसी भयंकर जन्तु की भाँति उसे नित्य घूरा करता था कि कहीं शङ्खधर अपने पिता के गृह-त्याग का कारण न जान ले, कहीं वह यह न जान जाय कि बाबूजी को राज पाट से घृणा है, नहीं तो फिर इसे कौन रोकेगा?

उसे अब हरदम यही पछतावा होता रहता कि मैं शङ्खधर को लेकर स्वामी के साथ क्यों न चली गयी? राज्य के लोभ में वह पति को पहले ही खो बैठी थी, कहीं पुत्र को भी तो न खो बैठेगी? सुख और विलास की वस्तुओं से शङ्खधर की दिन-दिन बढ़नेवाली उदासीनता देख देखकर वह चिन्ता के मारे और भी घुली जाती थी।


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ठाकुर हरिसेवकसिंह का क्रियाकर्म हो जाने के बाद एक एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा लत्ता बाँधना शुरू किया। उसके पास रुपए-पैसे जो कुछ थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली—भैया, मैं अब किसी गाँव में जाकर रहूँगी, यहाँ मुझसे नहीं रहा जाता।

वास्तव में लौगी से अब इस घर में न रहा जाता था। घर की एक एक चीज उसे काटने दौड़ती थी। २५ वर्ष तक इस घर की स्वामिनी बनी रहने के बाद अब वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। सब कुछ उसी के हाथों का किया हुआ था,