मैंने किसी विवाहित स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्माँ को अपने साथ लाओ!
गुरुसेवक—मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा!
मनोरमा—क्यों? क्या इसमें आपका अपमान होगा?
गुरुसेवक—वह समझेगी, आखिर इन्हीं को गरज पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जायगी। उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुँचेगा।
मनोरमा—भैया, ऐसी बाते मुँह से न निकालो। लौंगी देवी है, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है। उसपर तुम्हारा यह भाव देखकर मुझे दुःख होता है।
गुरुसेवक—मैं अब उससे कभी न बोलूँगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूँगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊँगा।
मनोरमा—अच्छी बात है, तुम न जाओ; लेकिन मेरे जाने में तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है?
गुरुसेवक—तुम जाओगी?
मनोरमा—क्यों, मैं क्या हूँ! क्या मैं भूल गयी हूँ कि लौंगी अम्माँ ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? अगर वह इस घर में आकर रहती, तो मैं अपने हाथों से उसके पैर धोती और चरणामृत आँखों से लगाती। जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात-की-रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को कभी भूल सकती हूँ? माता के ऋण से उऋण होना चाहे सम्भव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूँ। आजकल वह कहाँ है?
गुरुसेवक लज्जित हुए। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पड़े हुए हैं। पूछा—आपका जी कैसा है?
दीवान साहब की लाल आँखें चढ़ी हुई थीं। बोले—कुछ नहीं जी, जरा सरदी लग रही थी।
गुरसेवक—आपकी इच्छा हो, तो में जाकर लौंगी को बुला लाऊँ?
हरिसेवक—तुम! नहीं तुम उसे बुलाने क्या जाओगे। कोई जरूरत नहीं। उसका जी चाहे, आये या न आये। हुँह! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहाँ की अमीरजादी है?
गुरुसेवक-यह आप कहें। हम तो उसकी गोद में खेले हुए हैं, हम ऐसा कैसे कह सकते हैं। नोरा आज मुझपर बहुत बिगड़ रही थी। वह खुद उसे बुलाने जा रही है। उसकी जिद तो आप जानते ही हैं! जब धुन सवार हो जाती है, तो उसे कुछ नहीं सूझता।
हरिसेवक सजल नेत्र होकर बोले—नोरा जाने को कहती है। नोरा जायगी? नहीं, मैं उसे न जाने दूँगा। लौंगी को बुलाने नोरा नहीं जा सकती। मैं उसे समझा दूँगा।
गुरसेवक क्या जानते थे, इन शब्दों में कोई गूढ़ आशय भरा हुआ है। वहाँ से चले गये।