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कायाकल्प]
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मनोरमा है! वह दो सिपाहियों के साथ लपकी हुई सड़क की ओर चली आ रही थी। चक्रधर समझ गये, यह मुझे ढूँढ़ रही है। उनके जी में एक बार प्रबल इच्छा हुई कि उसके चरणों पर गिरकर कहे—देवी, मैं तुम्हारी कृपाओं के योग्य नहीं हूँ। मैं नीच, पामर, अभागा हूँ। मुझे जाने दो, मेरे हाथों तुम्हें सदा कष्ट मिला है और मिलेगा।

मनोरमा अपने आदमियों से कह रही थी—अभी कहीं दूर न गये होंगे। तुम लोग पूर्व की ओर जाओ, मै एक आदमी के साथ इधर जाती हूँ। बस, इतना ही कहना कि रानीजी ने कहा है, जहाँ जाना चाहें जायँ; पर मुझसे मिल कर जायँ।

राजभवन के सामने एक मनोहर उद्यान या। चक्रधर एक वृक्ष की आड़ में छिप गये। मनोरमा सामने से निकल गयी। चक्रधर का कलेजा धड़क रहा था कि कहीं पकड़ न लिया जाऊँ। दोनों तरफ के रास्ते बन्द थे। बारे उन्हें ज्यादा देर तक न रहना पड़ा। मनोरमा कुछ दूर जाकर लौट आयी। उसने निश्चय किया कि इधर-उधर खोजना व्यर्थ है। रेलवे स्टेशन पर जाकर उनको रोकना चाहिए। स्टेशन के सिवा और कहाँ जा सकते हैं। चक्रधर की जान-में-जान आयी, ज्योंही रानी इधर आयी, वह कुञ्ज से निकलकर कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलने के पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर उन्हें कोई पा न सके। दिन निकलने में अब बहुत देर भी न थी। तारों की ज्योति मन्द पड़ चली। चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।

सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएँ के पास कई आदमी बैठे दिखायी दिये। उनके बीच में एक लाश रखी हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुन्दे लिये पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे—कौन मर गया है। धन्नासिंह की आवाज पहचानकर वह सड़क ही पर ठिठक गये। इसने पहचान लिया, तो मुश्किल पड़ेगी।

धन्नासिंह कह रहा था—कजा आ गया, तो कोई क्या कर सकता है? बाबूजी के हाथ में कोई डण्डा भी तो न था। दो चार घूँसे मारे होंगे और क्या? मगर उस दिन से फिर बेचारा उठा नहीं।

दूसरे आदमी ने कहा—ठाँव-कुठाव की बात है। एक घूँसा पीठ पर मारो, तो कुछ न होगा, केवल 'धम' की आवाज होगी। लेकिन वही घूँसा पसली में या नाभी के पास पड़ जाय, तो गोली का काम कर सकता है। ठाँव-कुठाव को बात है। मन्ना का, कुठाँव चोट लग गयी।

धन्नासिंह—बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा। उस दिन न-जाने उनके सिर कैसे क्रोध का भूत सवार हो गया था। बड़े दयावान हैं; किसी को कड़ी निगाह से देखते तक नहीं। जेहल में हम लोग उन्हें भगतजी कहा करते थे। सुनेंगे, तो बहुत पछतायेंगे।

एक बूढ़ा आदमी बोला—भैया, जेहल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। तब राजा ठाकुर तो नहीं थे। राज पाकर दयावान रहें, तो जानो।

धन्नासिंह—दादा, वह राज पाकर फूल उठनेवाले आदमी नहीं हैं। तुमने देखा, यहाँ से जाते ही-जाते माफी दिला दी।