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[कायाकल्प
 

उसी वक्त देवप्रिया ने गुफा से बाहर निकल कर देखा, तो चारों ओर अंधकार छाया हुआ था, लेकिन एक ही क्षण में उसे वहाँ की सब चीजें दिखायी देने लगीं। अन्धकार वही था, पर उसको आँखें उसमें प्रवेश कर गयी थीं। सामने ऊँची पहाड़ियों की श्रेणियाँ अप्सराओं के विशाल भवनों की-सी मालूम होती थी। दाहिने ओर वृक्षों के समूह साधुओं की कुटियों के समान दीख पड़ते थे और बायीं ओर एक रत्नजटित नदी किसी चञ्चल पनिहारिन की भाँति मीठे राग गाती, अठलाती चली जाती थी। फिर उसे गुफा से नीचे उतरने का मार्ग साफ-साफ दिखायी देने लगा। अन्धकार वही था, पर उसमें कितना प्रकाश आ गया था।

उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शंका उत्पन्न हुई—मेरा वह निकृष्ट जीवन कहीं फिर तो मेरा सर्वनाश न कर देगा?


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राजा विशालसिंह ने इधर कई साल से राज-काज छोड़ सा रखा था। मुंशी वज्रधर और दीवान साहब की चढ़ बनी थी। गुरुसेवकसिंह भी अपने राग-रंग में मस्त थे। सेवा और प्रेम का आवरण उतारकर अब वह पक्के विलायती हो गये थे। प्रजा के सुखदुख की चिन्ता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा थी। राजा साहब के सत्य और न्याय का उत्साह ठण्डा पड़ गया था। मनोरमा को पाकर उन्हें किसी चीज की सुधि न थी। उन्हें एक क्षण के लिए भी मनोरमा से अलग होना असह्य था। जैसे कोई दरिद्र प्राणी कहीं से विपुल धन पा जाय और रात दिन उसी की चिन्ता में पड़ा रहे, वही दशा राजा साहब की थी। मनोरमा उनका जीवन धन थी। उनकी दृष्टि में मनोरमा फूल की पँखड़ी से भी कोमल थी, उसे कुछ हो न जाय, यही भय उन्हें बना रहता था। अन्य रानियों की अब वह खुशामद करते रहते थे, जिसमें वे मनोरमा को कुछ कह न बैठें। मनोरमा को बात कितनी लगती है, इसका अनुभव उन्हें हो चुका था। रोहिणी के एक व्यंग्य ने उसे काशी छोड़कर इस गाँव में ला बिठाया था। वैसा ही दूसरा व्यंग्य उसके प्राण ले सकता था। इसलिए वह रानियों को खुश रखना चाहते थे, विशेषकर रोहिणी को हालाँकि वह मनोरमा को जलाने का कोई अवसर हाथ से न जाने देती थी।

लेकिन इस बालक ने आकर राजा साहब के जीवन में एक नवीन उत्साह का संचार कर दिया। अब तक उनके जीवन का कोई लक्ष्य न था। मन में प्रश्न होता था, किसके लिए करूँ? कौन रोनेवाला बैठा हुआ है? प्रतिमा ही न थी, तो मन्दिर की रचना कैसे होती? अब वह प्रतिमा आ गयी थी, जीवन का लक्ष्य मिल गया था। वह राजकाज से क्यों विरक्त रहते? मुंशीजी अब तक तो दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साधते रहते थे, पर अब वह कब किसी को गिनने लगे थे। ऐसा मालूम होता था कि अब वही राजा हैं। दीवान साहब अगर मनोरमा के पिता थे, तो मुन्शीजी राजकुमार के दादा थे। फिर दोनों में कौन दबता? कर्मचारियों पर कभी ऐसी फटकारें न पड़ी थीं। मुन्शीजी को देखते ही बेचारे थर थर काँपने लगते थे। भाग्य किसी का चमके, तो ऐसे