मालूम होता है?
'सुखदा' का नाम सुनकर अहल्या पहले भी चौंकी थी। अब की वही शब्द सुनकर फिर चौंकी! बाल-स्मृति किसी भूले हुए स्वप्न की भाँति चेतना-क्षेत्र में आ गयी। उसने घूँघट की आड़ से राजा साहब की ओर देखा। उसे अपनी स्मृति पर ऐसा ही आकार खिंचा हुआ मालूम पड़ा।
बालक को स्पर्श करते ही मनोरमा के जर्जर शरीर में एक स्फूर्ति-सी दौड़ गयी। मानो किसी ने बुझते हुए दीपक की बत्ती उकसा दी हो। बालक को छाती से लगाये हुए उसे अपूर्व आनन्द मिल रहा था, मानों बरसों के तृषित कण्ठ को शीतल जल मिल गया हो, और उसकी प्यास न बुझती हो। वह बालक को लिये हुए उठ बैठी और बोली—अहल्या, मैं अब यह लाल तुम्हें न दूँगी। यह मेरा है। तुमने इतने दिनों तक मेरी सुध न ली, यह उसी की सजा है।
राजा साहब ने मनोरमा को सँभालकर कहा—लेट जाओ, लेट जाओ। देह में हवा लग रही है। क्या करती हो।
किन्तु मनोरमा बालक को लिये हुए कमरे के बाहर निकल गयी। राजा साहब भी उसके पीछे पीछे दौड़े कि कहीं वह गिर न पड़े। कमरे में केवल चक्रधर और अहल्या रह गये। अहल्या धीरे से बोली—मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा भी नाम सुखदा था। जब मैं बहुत छोटी थी, तो मुझे लोग सुखदा कहते थे।
चक्रधर ने बेपरवाही से कहा—हाँ, यह कोई नया नाम नहीं।
अहल्या—मेरे बाबूजी की सूरत राजा साहब से बहुत मिलती है।
चक्रधर ने उसी लापरवाही से कहा—हाँ, बहुत-से आदमियों की सूरत मिलती है।
अहल्या—नहीं बिलकुल ऐसे ही थे।
चक्रधर—हो सकता है। २० वर्ष की सूरत अच्छी तरह ध्यान में भी तो नहीं रहती।
अहल्या—जरा तुम राजा साहब से पूछो तो कि आपकी सुखदा कब खोयी थी?
चक्रधर ने झुँझलाकर कहा—चुपचाप बैठो, तुम इतनी भाग्यवान् नहीं हो। राजा साहब की सुखदा कहीं खोयी नहीं, मर गयी होगी।
राजा साहब इसी वक्त बालक को गोद में लिये मनोरमा के साथ कमरे में आये। चक्रधर के अन्तिम शब्द उनके कान में पड़ गये। बोले—नहीं बाबूजी, मेरी सुखदा मरी नहीं, त्रिवेणी के मेले में खो गयी थी। आज बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी स्नान करने प्रयाग गया था, वहीं सुखदा खो गयी थी। उसकी उम्न कोई चार साल की रही होगी। बहुत ढूँढा, पर कुछ पता न चला। उसकी माता उसके वियोग में स्वर्ग सिधारीं। मैं भी बरसों तक पागल बना रहा। अन्त में सब करके बैठ रहा।
अहल्या ने सामने आकर निस्सकोच भाव से कहा—मैं भी तो त्रिवेणी के स्नान में खो गयी थी। आगरा की सेवा समितिवालों ने मुझे कहीं रोते पाया, और मुझे आगरे