यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२३४
[कायाकल्प
 

राजा साहब से विवाह करके बड़ी भूल की। सौतों ने तानों से छेद-छेदकर उसकी जान ले ली। राजा साहब उसपर जान देते थे। यही सारे उपद्रव की जड़ है। अहल्या! वह स्त्री नहीं है, देवी है।

अहल्या—हम लोगों के यहाँ चले आने से शायद नाराज हो गयीं। इतने दिनों में केवल मुन्नू के जन्मोत्सव पर एक पत्र लिखा था।

चक्रधर—हाँ, उनकी यही इच्छा थी कि हम सब उनके साथ रहें।

अहल्या—कहो तो मै भी चलूँ? देखने को जी चाहता है। उनका शील और स्नेह कभी न भूलेगा।

चक्रधर—योगेन्द्र बाबू को साथ लेते चलें। इनसे अच्छा तो यहाँ और कोई डाक्टर नहीं है।

अहल्या—अच्छा तो होगा। डाक्टर साहब से तुम्हारी दोस्ती है, खूब दिल लगाकर दवा करेंगे।

चक्रधर—मगर तुम मेरे साथ लौट न सकोगी, यह समझ लो। मनोरमा तुम्हें इतनी जल्द न आने देगी।

अहल्या—वह अच्छी तो हो जायँ। लौटने की बात पीछे देखी जायगी। तो तुम जाकर डाक्टर साहब को तैयार करो। मैं यहाँ सब सामान कर रही हूँ।

दस बजते-बजते में लोग यहाँ से डाक पर चले। अहल्या खिड़की से पावस का मनोहर दृश्य देखती थी, चक्रधर व्यग्र हो होकर घड़ी देखते थे कि पहुँचने में कितनी देर है और मुन्नू खिड़की से बाहर कूद पड़ने के लिए जोर लगा रहा था।


३०

चक्रधर जगदीशपुर पहुँचे, तो रात के आठ बज गये थे। राजभवन के द्वार पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। अन्न दान दिया जा रहा था और कँगले एक पर एक टूटे पड़ते थे। सिपाही धक्के-पर-धक्के देते थे, पर कगलों का रेला कम न होता था। शायद वे समझते थे कि कहीं हमारी बारी आने से पहले ही सारा अन्न समाप्त न हो जाय, अन्न कम हो जाने पर थोड़ा-थोड़ा देकर ही न टरका दें। मुंशी वज्रधर बारबार चिल्ला रहे थे—क्यों एक दूसरे पर गिरे पड़ते हो? सबको मिलेगा कोई खाली न जायगा, सैकड़ों बोरे भरे हुए हैं, लेकिन उनके आश्वासन का कोई असर न दिखायी देता था। छोटी सी बस्ती में इतने आदमी भी मुश्किल से होंगे! इतने कङ्गाल न-जाने कहाँ से फट पड़े थे।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर सामने देखा, तो भीड़ को हटाकर दौड़े और चक्रधर को गले लगा लिया। पिता और पुत्र दोनों रो रहे थे, पिता में पुत्र स्नेह था, पुत्र में पितृ भक्ति थी, किसी के दिल में जरा भी मैल न था, फिर भी वे आज पाँच साल के बाद मिल रहे हैं। कितना घोर अनर्थ है।

अहल्या पति के पीछे खड़ी थी। मुन्नू उसकी गोद में बैठा बड़े कुतूहल से दोनों