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कायाकल्प ]
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अगहन का महीना था। खासी सरदी पड़ रही थी; मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाये थे। अहल्या के पास तो पुराने कपड़े थे, पर चक्रधर के पुराने कपड़े मुन्शीजी के मारे बचने ही न पाते। या तो खुद पहन डालते, या किसी को दे देते। वह इसी फिक्र में थे कि कहीं से रुपए आ जायँ, तो एक कम्बल ले लूँ। आज बड़े इन्तजार के बाद लखनऊ के एक मासिक पत्र के कार्यालय से २५) का मनीआर्डर आया था और वह अहल्या के पास बैठे हुए कपड़ों का प्रोग्राम बना रहे थे।

अहल्या ने कहा—मुझे अभी कपड़ों की जरूरत नहीं है। तुम अपने लिए एक अच्छा-सा कम्बल कोई १५) में ले लो। बाकी रुपयों में अपने लिए एक ऊनी कुरता और एक जूता ले लो। जूता बिलकुल फट गया है।

चक्रधर—१५) का कम्बल क्या होगा? मेरे लायक ३-४) में अच्छा कम्बल मिल जायगा। बाकी रुपयों से तुम्हारे लिए एक अलवान ला देता हूँ। सवेरे सवेरे उठकर तुम्हें काम-काज करना पड़ता है; कहीं सरदी खा जाओ, तो मुश्किल पड़े। ऊनी कुरते की जरूरत नहीं। हाँ, तुम एक सलूका बनवा लो। मैं तगड़ा आदमी हूँ, ठण्ड सह सकता हूँ।

अहल्या—खूब तगड़े हो, क्या कहना है। जरा आइने में जाकर सूरत तो देखो। जब से यहाँ आये हो, आधी देह भी नहीं रही। मै जानती कि यहाँ आकर तुम्हारी यह दशा हो जायगी, तो कभी घर से कदम न निकालती। मुझसे लोग छूत माना करते, क्या परवा थी? तुम तो आराम से रहते। मैं अलवान-सलवान न लूँगी, तुम आज एक कम्बल लाओ, नहीं तो मैं सच कहती हूँ, यदि मुझे बहुत दिक करोगे तो में आगरे चली जाऊँगी।

चक्रधर-तुम्हारी यही निद तो मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं कई साल से अपने को इसी ढंग के जीवन के लिए साध रहा हूँ। मैं दुबला हूँ तो क्या; गरमी-सरदी खूब सह सकता हूँ। तुम्हें यहाँ ६-१० महीने हुए, बताओ मेरे सिर में एक दिन भी दर्द हुआ। हाँ, तुम्हें कपड़े की जरूरत है। तुम अभी ले लो, अब की रुपए आयेंगे, तो मै भी बनवा लूँगा।

इतने में डाकिये ने पुकारा। चक्रधर ने जाकर खत ले लिया और उसे पढ़ते हुए अन्दर लाये। अहल्या ने पूछा—लालाजी का खत है न? लोग अच्छी तरह हैं न?

चक्रधर—मेरे आते ही न-जाने उन लोगों पर क्या साढ़ेसाती सवार हो गयी है कि जब देखो, एक न एक विएक विपत्ति सवार हो रहती है। अभी मंगला बीमार थी। अब अम्माँ बीमार हैं। बाबूजी को खाँसी आ रही है। रानी साहब के यहाँ से अब वजीफा नहीं मिलता है। लिखा है कि इस वक्त ५०) अवश्य भेजो।

अहल्या—क्या अम्माँजी बहुत बीमार हैं?

चक्रधर—हाँ, लिखा तो है।

अहल्या—तो जाकर देख ही क्यों न आओ?