गये थे। वहाँ रुपये का नित्य अभाव रहता था। कम मिलने पर कम तंगी रहती थी; क्योंकि जरूरतें घटा ली जाती थीं। अधिक मिलने पर तंगी भी अधिक हो जाती थी, क्योंकि जरूरतें बढ़ा ली जाती थीं। चक्रधर को अब ज्ञात होने लगा था कि गृहस्थी में पड़कर कुछ न कुछ स्थायी आमदनी होनी ही चाहिए। अपने लिए उन्हें कोई चिन्ता न थी, लेकिन अहल्या को वह दरिद्रता की परीक्षा में डालना न चाहते थे। वह अब बहुधा चिन्तित दिखायी देती, यों वह कभी शिकायत न करती थी; पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा में सन्तुष्ट नहीं है। वह गहने व कपड़े की भूखी न थी, न सैर तमाशे का उसे चस्का ही था, पर खाने पीने की तकलीफ उससे न सही जाती थी। वह खुद सब कुछ सह सकती थी। उसकी सहन-शक्ति का वारपार न था। चक्रधर को इस दशा में देखकर उसे दुःख होता था। जब और लोग पहले अपने घर में चिराग जलाकर मसजिद में जलाते हैं, तो वही क्यों अपने घर को अन्धेरा छोड़कर मसजिद में चिराग जलाने जायँ? औरों को अगर मोटर-फिटन चाहिए, तो क्या यहाँ पैरगाड़ी भी न हो? दूसरों को पक्की हवेलियाँ चाहिए, तो क्या यहाँ साफ सुथरा मकान भी न हो? दूसरे जायदाद पैदा करते हैं, तो क्या यहाँ भोजन भी नहीं? आखिर प्राण देकर तो सेवा नहीं की जाती। अगर इस उत्सर्ग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहल्या को सन्तोष हो जाता, आँसू पुँछ जाते, लेकिन जब वह औरों को बिना कष्ट उठाये चक्रधर के बराबर या उनसे अधिक यश पाते देखती थी, तो उसे धैर्य न रहता था। जब खाली ढोल पीटकर भी, अपना घर भरकर भी यश कमाया जा सकता है, तो इस त्याग और विराग की जरूरत ही क्या? जनता धनियों का जितना मान-सम्मान करती है, उतना सेवकों का नहीं। सेवा-भाव के साथ धन भी आवश्यक है। दरिद्र सेवक, चाहे वह कितने ही सच्चे भाव से क्यों न काम करे, चाहे वह जनता के लिए प्राण ही क्यों न दे दे, उतना यश नहीं पा सकता, जितना एक धनी आदमी अल्प सेवा करके पा जाता है। अहल्या को चक्रधर का आत्म दमन इसीलिए बुरा लगता था और वह मुँह से कुछ न कहकर भी दुखी रहती थी। सेवा स्वयं अपना बदला है, यह आदर्श उसको समझ में न आता था।
अगर चक्रधर को अपना ही खर्च सँभालना होता तो शायद उन्हें बहुत कष्ट न होता, क्योंकि उनके लेख बहुत अच्छे होते थे और दो-तीन समाचार पत्रों में लिखकर वह अपनी जरूरत-भर को पैदा कर लेते थे। पर मुंशी वज्रधर के तकाजों के मारे उनकी नाक में दम था। मनोरमा जगदीशपुर जाकर संसार से विरक्त सी हो गयी थी। न कहीं आती, न कहीं जाती और न रियासत के किसी मामले में बोलती। धन से उसे घृणा ही हो गयी थी। सब कुछ छोड़कर वह अपनी कुटी में जा बैठी थी, मानो कोई सन्यासिनी हो, इसलिए अब मुंशीजी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका गुजर होता था। चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती।