यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
२२३
 

साहब नींद में हैं। उन्हें जगाना व्यर्थ है। सबेरे तक तो मैं लौट ही आऊँगी।

लेकिन फिर खयाल आया, इस वक्त जाऊँगी, तो लोग क्या कहेंगे। जाकर इतनी रात गये सबको जगाना कितना अनुचित होगा। वह फिर आकर लेट रही और सो जाने की चेष्टा करने लगी। पाँच घण्टे इसी प्रतीक्षा में जागते रहना कठिन परीक्षा थी। उसने चक्रधर को रोक लेने का निश्चय कर लिया था।

बारे अब की उसे नींद आ गयी। पिछले पहर चिन्ता भी थककर सो जाती है। सारी रात करवटें बदलनेवाला प्राणी भी इस समय निद्रा में मग्न हो जाता है। लेकिन देर से सोकर भी मनोरमा को उठने में देर नहीं लगी। अभी सब लोग सोते ही थे कि वह उठ बैठी और तुरंत मोटर तैयार करने का हुक्म दिया। फिर अपने हैंडबेग में कुछ चीजें रखकर वह रवाना हो गयी।

चक्रधर भी प्रातःकाल उठे और चलने की तैयारियाँ करने लगे। उन्हें माता-पिता को छोड़कर जाने का दुःख हो रहा था, पर उस घर में अहल्या की जो दशा थी, वह उनके लिए असह्य थी। अहल्या ने कभी शिकायत न की थी। वह चक्रधर के साथ सब कुछ झेलने को तैयार थी; लेकिन चक्रधर को यह किसी तरह गवारा न था कि अहल्या मेरे घर में परायी बनकर रहे। माता-पिता से भी कुछ कहना-सुनना उन्हें व्यर्थ मालूम होता था, मगर केवल यही कारण उनके यहाँ से प्रस्थान करने का न था। एक कारण और भी था, जिसे वह गुप्त रखना चाहते थे, जिसको अहल्या को भी खबर न थी। यह कारण मनोरमा थी। जैसे कोई रोगी रुचि रखते हुए भी स्वादिष्ट वस्तुओं से बचता है कि कहीं उनसे रोग और न बढ़ जाय, उसी भाँति चक्रधर मनोरमा से भागते थे। आजकल मनोरमा दिन में एक बार उनके घर जरूर आ जाती। अगर खुद न आ सकती थी, तो उन्हीं को बुला भेजती। उसके सम्मुख आकर चक्रधर को अपना संयम, विचार और मानसिक स्थिति ये सब बालू की मेंड़ की भाँति पैर पड़ते ही खिसकते मालूम होते। उसके सौन्दर्य से कहीं अधिक उसका आत्म समर्पण घातक था। उन्हें प्राण लेकर भाग जाने ही में कुशल दिखायी देती थी। गाड़ी ७ बजे छूटती थी। वह अपना बिस्तर और पुस्तकें बाहर निकाल रहे थे। भीतर अहल्या अपनी सास और ननद के गले मिलकर रो रही थी, कि इतने में मनोरमा की मोटर आती हुई दिखायी दी। चक्रधर मारे शर्म के गढ़ गये। उन्हें मालूम हुआ कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे दी है, और वह जरूर आयेगी; पर वह उसके आने के पहले ही रवाना हो जाना चाहते थे। उन्हें भय था कि उसके आग्रह को न टाल सकूँगा, घर छोड़ने का कोई कारण न बता सकूँगा और विवश होकर मुझे फिर यहीं रहना पड़ेगा। मनोरमा को देखकर वह सहम उठे पर मन में निश्चय कर लिया कि इस समय निष्ठुरता का स्वाँग भरूँगा, चाहें वह अप्रसन्न ही क्यों न हो जाय।

मनोरमा ने मोटर से उतरते हुए कहा—बाबूजी, अभी जरा ठहर जाइए। यह उतावली क्यों? आप तो ऐसे भागे जा रहे हैं, मानो घर से रूठे जाते हों। बात क्या