औरत देखी ही नहीं। एक महीना से ज्यादा हो गये, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपनी सास की देह दबाये बगैर सोयी हो। सबसे पहले उठती है, और सबके पीछे सोती है। उसको तो मैं कुछ कह ही नहीं सकता। वह सब लल्लू की शरारत है। जो उसके मन में आता है, वही करता है। मुझे तो कुछ समझता ही नहीं, आगरे में जाकर शादी की। कितना समझाया, पर न माना। मैंने दरगुजर किया। बहू को धूमधाम से घर लाया। सोचा, जब लड़के से इसका सम्बन्ध हो गया, तो अब बिगड़ने और रूठने से नहीं टूट सकता। लड़की का दिल क्यों दुखाऊँ, लेकिन लल्लू का मुँह फिर भी सीधा नहीं होता। अब न-जाने मुझसे क्या करवाना चाहता है।
मनोरमा—जरूर कोई-न-कोई बात होगी। घर में किसी ने ताना तो नहीं मारा?
मुंशी—इल्म की कसम खाकर कहता हूँ, हुजूर, जो किसी ने चूँ तक की हो। ताना उसे दिया जाता है, जो टर्राये। वह तो सेवा और शील की देवी है, उसे कौन ताना दे सकता है? हाँ, इतना जरूर है कि हम दोनों आदमी उसका छुआ नहीं खाते।
मनोरमा ने सिर हिलाकर कहा—अच्छा, यह बात है! भला, बाबूजी यह कब बर्दाश्त करने लगे। मैं अहल्या की जगह होती, तो उस घर में एक क्षण भी न रहती। वह न जाने कैसे इतने दिन रह गयी।
मुंशी—उससे तो कभी इस बात की चर्चा तक नहीं की हुजूर। (आप बार-बार मना करती हैं कि मुझे हुजूर न कहा करो, पर जबान से निकल ही आता है) इसी लिए तो मैंने उसके आते ही आते एक महराजिन रख ली. जिसमें खाने-पीने का सवाल ही न पैदा हो। संयोग की बात है, कल महराजिन ने बहू से तरकारी बघारने के लिए घी माँगा। बहू घी लिये हुए चौके में चली गयी। चौका छूत हो गया। लल्लू ने तो खाना खाया और सबके लिए बाजार से पूरियाँ आयीं। वह तभी से पड़ रही है और लल्लू घर छोड़कर उसे लिये चला जा रहा है।
मनोरमा ने विरक्त भाव से कहा—तो मैं क्या कर सकती हूँ?
मुन्शी—आप सब कुछ कर सकती हैं। आप जो कर सकती हैं, वह दूसरा नहीं कर सकता। आप जरा चलकर उसे समझा दें। मुझपर इतनी दया करें। सनातन से जिन बातों को मानते आये हैं, वे अब छोड़ी नहीं जातीं।
मनोरमा—तो न छोड़िए, आपको कोई मजबूर नहीं करता। आपको अपना धर्म प्यारा है और होना भी चाहिए। उन्हें भी अपना सम्मान प्यारा है और होना भी चाहिए। मैं जैसे आपको बहू के हाथ का भोजन ग्रहण करने को मजबूर नहीं कर सकती, उसी भाँति उन्हें भी यह अपमान सहने के लिए नहीं दबा सकती। आप जानें और वह जानें, मुझे बीच में न डालिए।
मुन्शी—हुजूर, इतना निराश न करें। यदि बच्चा चले गये तो हम दोनों प्राणी तो रोते-रोते मर जायँगे।
मनोरमा—तो इसकी क्या चिन्ता? एक दिन तो सभी को मरना है, यहाँ अमर