उसके मर्मस्थल को जलाये डालती थी, इन शीतल आर्द्र शब्दों से शान्त हो गयी। शंका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी दाह चञ्चल दृष्टि स्थिर हो गयी और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आँखों के सामने खड़ी दिखायी दी। उसने अपना सिर उनके कन्धे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएँ विलीन हो गयीं, जैसे कोई बात ध्वनि सरिता के शान्त, मन्द प्रवाह में विलीन हो जाती है।
सन्ध्या-समय अहल्या वागीश्वरी के चरणों पर सिर झुकाये रो रही थी और चक्रघर खड़े, नेत्रों से उस घर को देख रहे थे, जिसकी आत्मा निकल गयी थी। दीपक वही थे; पर उनका प्रकाश मन्द था। घर वही था; पर उसकी दीवारें नीची मालूम होती थीं। वागीश्वरी वही थी; पर लुटी हुई, जैसे किसी ने प्राण हर लिये हों।
२७
बाबू यशोदानन्दन का क्रिया-कर्म हो गया, पर धूम धाम से नहीं। बाबू साहब ने मरते मरते ताकीद कर दी थी कि मृतक-सस्कारों में धन का अपव्यय न किया जाय। यदि कुछ धन जमा हो, तो वह हिन्द-सभा को दान दे दिया जाय। ऐसा ही किया गया।
इसके तीसरे ही दिन चक्रधर का अहल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन और टालना चाहते थे लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। पति-रक्षा से वंचित होकर वह परायी कन्या की रक्षा का भार लेते हुए डरती थी। इस उपद्रव ने उसे सशंक कर दिया था। विवाह में कुछ धूमधाम नहीं हुई। हाँ, शहर के कई रईसों ने कन्यादान में बड़ी बड़ी रकमें दीं और सबसे बड़ी रकम ख्वाजा साहब की थी। अहल्या के विवाह के लिए उन्होंने ५०००) अलग कर रखे थे। यह सब कन्या दान में दे दिये। कई सस्थाओं ने भी इस पुण्य कार्य में अपनी उदारता का परिचय दिया। वैमनस्य का भूत नेताओं का बलिदान पाकर शान्त हो गया।
जिस दिन चक्रधर अहल्या को विदा कराके काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुँचाने आये। वागीश्वरी का रोते रोते बुरा हाल था। जब अहल्या आकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। संसार उसकी आँखों में सूना हो गया। पतिशोक में भी उसके जीवन का एक आधार रह गया था। अहल्या के जाने से वह सर्वथा निराधार हो गयी। जी में आता था, अहल्या को पकड़ लूँ। उसे कोई क्यों लिये जाता है? उसपर किसका अधिकार है, वह जाती ही क्यों है? उसे मुझपर जरा भी दया नहीं आती? क्या वह इतनी निष्ठुर हो गयी है? वह इस शोक के आवेश में लपकर द्वार पर आयी; पर पालकी का पता नहीं था। तब यह द्वार पर बैठ गयी। ऐसा जान पड़ा, मानो चारों और शून्य, निस्तब्ध, अन्धकारमय श्मशान है। मानो कहीं कुछ रहा ही नहीं।
अहल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नही, वियोग में। वह घर छोड़ते हुए उसका दृदय फटा जाता था। प्राण देह से निकलकर घर से चिमट जाते और फिर छोड़ने का नाम न लेते थे। एक एक वस्तु को देखकर मधुर स्मृतियों के समूह आँखों के सामने आ खड़े होते थे। वागीश्वरी की गर्दन में तो उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो