नृसिंह ने ले ली है। आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहबा के गुरु रह चुके हैं, और वह उन्हें अब भी उसी भाव से देखती हैं। अपने गुरु का सम्मान करना शिष्य का धर्म है; किन्तु रानी साहबा का कोमल हृदय इस समय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए जगह ही नहीं रही। इसके लिए वह क्षम्य हैं। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दोनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही है। जेल में भी नापने निकिता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते हैं, आपने धर्म और जाति प्रेम को उपासना है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूँ।
एक सज्जन ने टोका––आप ही ने तो उन्हें सजा दिलायी थी?
राजा––हॉ, मैं इसे स्वीकार करता हूँ। राज्य के मद में कुछ दिनों के लिए मैं अपने को भूल गया था। कौन है, जो प्रभुता पाकर फूल न उठा हो। यह मानवीय स्वभाव है और आशा है आप लोग मुझे क्षमा करेंगे।
राजा साहब बोल ही रहे थे कि मनोरमा पण्डाल से निकल पायी और मोटर पर बैठकर राज्य भवन चली गयी। रास्ते भर वह रोती रही। उसका मन चक्रधर से एकान्त मैं बातें करने के लिए विकल हो रहा था। वह उन्हे समझाना चाहती थी कि मैं तिरस्कार योग्य नही, दया के योग्य हूँ। तुम मुझे विलासिनी समझ रहे हो, यह तुम्हारा अन्याय है। और किस प्रकार में तुम्हारी सेवा करती? मुझमे बुद्धि बल न था; धन बल न था, विद्या-बल न था, केवल रूप-चल था, और वह मैंने तुम्हें अर्पण कर दिया। फिर भी तुम मेरा तिरस्कार करते हो!
मनोरमा ने दिन तो किसी तरह काटा, पर शाम को वह अधीर हो गयी। तुरंत चक्रधर के मकान पर जा पहुँची। देखा, तो वह अकेले द्वार पर टहल रहे थे। शामियाना उखाड़ लिया गया था। कुरसियाँ, मेजें, दरिया, गमले, सब वापस किये जा चुके थे। मिलनेवालो का तांता टूट चुका था। मनोरमा को इस समय बड़ी लजा आयी। न-जाने यह अपने मन में पया समझ रहे होंगे। अगर छिपकर लौटना सम्भव होता, तो वह अवश्य लौट पड़ती। मुझे अभी न पाना चाहिए था। दो चार दिन में मुलाकात हो ही जाती। नाहक इतनी जल्दी की; पर अब पछताने से क्या होता था? चक्रधर ने उसे देख लिया योर समीप आकर प्रसन्न भाव से बोले––मै तो स्वयं आपकी सेवा में आनेवाला था। आपने व्यर्थ कट किया।
मनोरमा––मैने सोचा, चलकर देख लूँ यहाँ का सामान भेज दिया गया है या नहीं? आइये, सैर कर आयें। अकेले जाने का जी नही चाहता। आप बहुत दुबले हो रहे हैं। कोई शिकायत तो नहीं है न?
चक्रधर––नहीं, मैं बिलकुल अच्छा हूँ, कोई शिकायत नही है। जेल में कोई कष्ट न था, बल्कि सच पूछिए तो मुझे वहाँ बहुत आराम था। मुझे अपनी कोटरी से इतना प्रेम हो गया था कि उसे छोड़ते हुए दुःख होता था। आपकी तबीयत अब कैसी है ?