अगर दो में से एक भी हाथ न पाये, तो वह काम करना ही व्यर्थ है।
यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर का रक्त हीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया। यह सोचकर शरमाये कि ये लोग अपने मन में पिताजी को हँसी उड़ा रहे होंगे। और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ। चुपके से राजा साहब की दुकड़ी पर आ बैठे। जुलूस चला। आगे-आगे पाँच हाथी थे, जिन पर नौबत बज रही थी। उनके पीछे कोतल घोड़ों की लम्बी कतार थी, जिन पर बैंड का दल था। बैंड के पीछे जगदीशपुर के सैनिक चार-चार की कतार में कदम मिलाये चल रहे थे। फिर क्रम से आर्य महिला-मंडल, खिलाफत, सेवा-समिति और स्काउटों के दल थे। उनके पीछे चक्रधर की जोड़ी थी, जिसमें राजा साहब मनोरमा के साथ बैठे हुए थे। इसके बाद तरह तरह की चौकियाँ थीं, जिनके द्वारा राजनैतिक समस्याओं का चित्रण किया गया था। फिर भाँति-भाँति की गायन मंडलियाँ थी, जिनमें कोई ढोल मजीरे पर राजनैतिक गीत गाती थीं, कोई डण्डे बजा-बजाकर राष्ट्रीय 'हर गंगा' सुना रही थीं, और दो चार सजन 'चने जोर गरम और चूरन अमलवेत' की वाणियों का पाठ कर रहे थे। सबके पीछे बग्घियों, मोटरों और बसों की कतारें थीं। अन्त में जनता का समूह था।
जलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक होता हुया दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुंचा। यहाँ मुंशीजी के मकान के सामने एक बहुत बड़ा शामियाना तना हुआ था। निश्चय हुआ था कि यहीं सभा हो और चक्रधर को अभिनन्दन पत्र दिया जाय। मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनानेवाली थी, लेकिन जब लोग आ आकर पडाल में बैठे और मनोरमा अभिनन्दन पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुंह से एक शब्द न निकला। आज एक सप्ताह से उसने जी तोड़कर स्वागत की तैयारियाँ की थीं, दिन को दिन और रात को रात न समझा था, रियासत के कर्मचारी दौड़ते दौड़ते तंग आ गये थे। काशी-जैसे उत्साह-हीन नगर में ऐसे जुलूस का प्रबन्ध करना आसान काम न था। विशेष करके चौकियों और गायन मण्डलियों की आयोजना करने में उसे बहुत कष्ट उठाने पड़े थे और कई मण्डलियों को दूसरे शहरों से बुलाना पड़ा था! उसकी श्रमशीलता और उत्साह देख देखकर लोगों को आश्चर्य होता था, लेकिन जब वह शुभ-अवसर पाया कि वह अपनी दौड़-धूप का मनमाना पुरस्कार ले, तो उसकी वाणी धोखा दे गयी। फिटन में वह चक्रधर के सम्मुख बैठी थी। राजा साहब चक्रधर से जेल के सम्बन्ध में बातें करते रहे, पर मनोरमा वहाँ भी चुप ही रही। चक्रधर ने उसकी आशा के प्रतिकूल उससे कुछ न पूछा। यह अगर उसका तिरस्कार नहीं तो क्या था? हाँ, यह मेरा तिरस्कार है। यह समझते हैं, मैंने विलास के लिए विवाह किया है। इन्हे कैसे अपने मन की व्यथा समझाऊँ कि यह विवाह नहीं, प्रेम को बलि-वेदी है।
मनोरमा को असमंजस में देखकर राना साहब ऊपर आ खड़े हुए और उसे धीरे से कुरसी पर बिठाकर बोले––सज्जनों, रानीजी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरी बातों में कहाँ! कोयल के स्थान पर कौआ खड़ा हो गया है, शहनाई को जगह