मनोरमा––मैं तो समझती हूँ, ५०) बहुत होंगे। उन्हें और जरूरत ही क्या है!
राजा––नहीं जी, उनके लिए एक दस रुपए काफी है। ५०) की थैली लेकर भला यह क्या करेंगे। तुम्हें कहते शर्म न पायी? ५०) मे आजकल रोटियाँ भी नहीं चल सकतीं, और बातों का तो जिक्र ही क्या। एक भले आदमी के निर्वाह के लिए इस जमाने में ५००) से कम नहीं खर्च होते।
मनोरमा––पाँच सौ। कभी न लेंगे। ५०) ही ले लें, मैं इसी को गनीमत समझती हूँ। पाँच सौ का तो नाम हो सुनकर वह भाग खड़े होंगे।
राजा––हमारा जो धर्म है, वह हम कर देंगे, लेने या न लेने का उनको अख्तियार है। मनोरमा फिर लिखने लगी, और यह राजा साहब को वहाँ से चले जाने का समेत था, पर राजा साहब ज्यों के त्यों बैठे रहे। उनकी दृष्टि मकरन्द के प्यासे भ्रमर की भांति मनोरमा के मुख-कमल का माधुर्यरसपान कर रही थी। उसकी बाँकी अदा आज उनकी आँखों में खुबी जाती थी। मनोरमा का शृङ्गार-रूप आज तक उन्होंने न देखा था। इस समय उनके हृदय में जो गुदगुदी हो रही थी, वह उन्हें कभी न हुई थी। दिल थाम थामकर रह जाते थे। मन में बार बार एक प्रश्न उठता था; पर जल में उछलनेवाली मछलियों की भाँति पिर मन में विलीन हो जाता था। प्रश्न था इसका वास्तविक स्वरूप यह है या वह?
सहसा घड़ी में ६ बजे। मनोरमा कुरसी से उठ खड़ी हुई। राजा साहब भी किसी वृक्ष की छाया में विश्राम करनेवाले पथिक की भाँति उठे और धीरे धीरे द्वार की भोर चले। द्वार पर पहुँचकर वह फिर मुड़कर मनोरमा से बोले––मै भी चलूँ, तो क्या हरज?
मनोरमा ने करुण-कोमल नेत्रों से देखकर कहा––अच्छी बात है, चलिए, लेकिन पिताजी के पास किसी अच्छे डाक्टर को बिठाते जाइएगा, नहीं तो शायद उनके प्राण न बचें।
राजा––दीवान साहब रियासत के सच्चे शुभचिन्तक हैं।
२४
रेलवे स्टेशन पर कहीं तिल रखने की जगह न थी। अन्दर का चबूतरा और बाहर का सहन सब आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे पर विद्यालयों के छात्र थे, रंग-बिरंग की वर्दियाँ पहने हुए, और सेवा समितियों के सेवक, रंग-बिरंग की झण्डियाँ लिये हुए। मनोरमा नगर की कई महिलाओं के साथ अञ्चल में फूल भरे सेवकों के बीच में खड़ी थी। उसका एक एक अंग आनंद से पुलकित हो रहा था। बरामदे में राजा विशालसिंह, उनके मुख्य कर्मचारी चौर शहर के रईस और नेता जमा थे। मुशी वज्रधर इधर उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते-फिरते थे। कोई घबराहट की बात नहीं, कोई तमाशा नहीं, वह भी तुम्हारे ही जैसा दो हाय और दो पैर का आदमी है। आयेगा, अब देख लेना, धक्कमधक्का करने की जरूरत नहीं। दीवान हरिसेवकसिंह सशंक नेत्रों से सरकारी सिपाहियों को देख रहे थे और बार-बार