प्रभात का समय था। प्रकृति फागुन के शीतल, उल्लासमय समीर-सागर में निमग्न हो रही थी। बाग में नव-विकसित पुष्प, किरणों के सुनहरे हार पहने मुसकरा रहे थे। आम के सुगन्धित नव पल्लवों मे कोयल अपनी मधुर तान अलाप रही थी। और मनोरमा आइने के सामने खड़ी अपनो केश-राशि का जाल सजा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद उसने अपने दिव्य, रत्न-जटित आभूषण निकाले हैं, बहुत दिनों के बाद अपने वस्त्रों में इत्र बसाये हैं। आज उसका एक-एक अंग मनोल्लास से खिला हुया है। आज चक्रधर जेल से छूटकर आयेंगे और वह उनका स्वागत करने जा रही है।
यो बन-ठनकर मनोरमा ने बगलवाले कमरे का परदा उठाया और दवे पाँव अन्दर गयी। मंगला अभी तक पलँग पर पड़ी मीठी-मीठी नींद ले रही थी। उसके लम्बे लम्बे केश तकिये पर बिखरे पड़े थे। दोनों सखियाँ आधी रात तक वातें करती रही थी। जब मंगला ऊँघ ऊँघकर गिरने लगी थी, तो मनोरमा उसे सुलाकर अपने कमरे में चली गयी थी। मंगला अभी तक पड़ी सो रही थी, मनोरमा की पलकें तक न करकी, अपने कल्पना कुञ्ज में विचरते हुए रात काट दी। मंगला को इतनी देर तक सोते देखकर उसने आहिस्ता से पुकारा––मंगला, कब तक सोयेगी? देख तो, कितना दिन चढ़ आया? जब पुकारने से मंगला न जागी, तो उसका कन्धा हिलाकर कहा––क्या दिन-भर सोती ही रहेगी?
मंगला ने पढ़े-पड़े कहा––सोने दो, सोने दो; अभी तो सोई हूँ, फिर सिर पर सवार हो गयीं!
मनोरमा––तो फिर मै जाती हूँ, यह न कहना, मुझे क्यों नहीं लगाया!
मंगला––(आँखे खोलकर) अरे! इतना दिन चढ़ आया। मुझे पहले ही क्यों न जगा दिया?
मनोरमा––जगा तो रही है, जब तेरी नींद टूटे! स्टेशन चलेगी न?
मंगला––मैं! मै स्टेशन कैसे जाऊँगी!
मनोरमा––जैसे मैं जाऊँगी, वैसे ही तू भी चलना। चल कपड़े पहन ले।
मंगला––ना भैया, मैं न जाऊँगी। लोग क्या कहेंगे।
मनोरमा––मुझे जो कहेंगे, वही तुझे भी कहेंगे, मेरी खातिर से सुन लेना।
मंगला-–आपकी बात और है, मेरी बात और आपको कोई नहीं हँसता, मुझे सब हँसेंगे। मगर मैं डरती हूँ, कहीं तुम्हे नजर न लग जाय।
मनोरमा––चल-चल, उठ; बहुत बातें न बना। मैं तुझे खींचकर ले जाऊँगी, मोटर में परदा कर दूंगी। बस, अब राजी हुई?
मंगला––हाँ, यह तो अच्छा उपाय है; लेकिन मैं नहीं जाऊँगी। अम्माजी सुनेंगों तो बहुत नाराज होगी।
मनोरमा––और लो उन्हें भी ले चलूँ, तब तो तुझे कोई आपत्ति न होगी?
मंगला-वह चलें तो में भी चलूं; लेकिन नहीं, वह बड़ी-बूढ़ी हैं, जहाँ चाहें वहाँ