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[कायाकल्प
 

अधिकार हो गया था। हारमोनियम बजाते-बजाते नाक सिकोड़कर बोले––उँह, क्या बिगाड़ देते हो, बेताल हुए जाते हो। हाँ, अब ठीक है।

यह कहकर आपने झिनकू के साथ स्वर मिलाकर गाया––

बसी जिय में तिरछी मुसकान।
कल न परत घड़ि, पल, छिन, निसि दिन रहत उन्हीं का ध्यान,
भृकुटी धनु-सी देख सखी री, नयना वान समान।

इतने में एक युवक कोट-पतलून पहने, ऐनक लगाये, मूंछ मुड़ाये, बाल संवारे आफर बैठ गया।

मुन्शीजी ने पूछा––तुम कौन हो, भाई? मुझसे कुछ काम है?

युवक––मैंने सुना है कि जगदीशपुर में किसी एकाउटैंट की जगह खाली है, आप सिफारिश कर दें, तो शायद वह जगह मुझे मिल जाय। मैं भी कायस्थ हूँ, और बिरादरी के नाते आपके ऊपर मेरा बहुत बड़ा हक है। मेरे पिताजी कुछ दिनों आपकी मातहती में काम कर चुके हैं। आपको मुन्शी सुखवासीलाल का नाम तो याद होगा।

मुन्शी––तो आप बिरादरी और दोस्ती के नाते नौकरी चाहते हैं, अपनी लियाकत के नाते नहीं। यह मेरे अख्तियार के बाहर है। मैं न दीवान हूँ, न मुहाफिज, न मुन्सरिम। उन लोगों के पास जाइए।

युवक––जनाब, आप सब कुछ है। मैं तो आपको अपना मुरब्बी समझता हूँ।

मुन्शी––कहाँ तक पढा है आपने?

युवक––बढ़ा तो बी० ए० तक है; पर पास न कर सका।

मुन्शी––कोई हरज नहीं। आपको बाजार के सौदे पटाने का कुछ तजरबा है? अगर आपसे कहा जाय कि जाकर दस हजार की इमारती लकड़ी लाइए, तो आप किफ़ायत से लायेंगे?

युवक––जी, मैंने तो कभी लकड़ी खरीदी नहीं।

मुन्शी––न सही, आप कुश्ती लड़ना जानते हैं? कुछ बिनवट-पटे के हाथ सीखे हैं? कौन जाने, कमी आपको राजा साहब के साथ सफर करना पड़े और कोई ऐसा मौका था जाय कि आपको उनकी रक्षा करनी पड़े!

युवक––कुश्ती लड़ना तो नहीं जानता, हाँ, फुटबॉल, हॉकी वगैरह खूब खेल सकता हूँ।

मुन्शी––कुछ गाना-बजाना जानते हो? शायद राजा साहब को सफर में कुछ गाना सुनने का जी चाहे, तो उन्हें खुश कर सकोगे?

युवक––जी नहीं, मैं मुसाहब नहीं होना चाहता, मैं तो एकाउटैंट की जगह चाहता हूँ।

मुन्शी––यह तो आप पहले ही कह चुके। मैं यह जानता हूँ कि कि आप हिसाब-किताब के सिवा और क्या कर सकते हैं? आप तैरना जानते हैं?

युवक––तैर सकता हूँ; पर बहुत कम।