यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
१७३
 

गहरी नींद आती है कि एक बार भी आँख नहीं खुलती। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्मनिष्ठा और भी बढ़ गयी। प्रार्थना में इतनी शान्ति है, इसका उसे पहले अनुमान न था। जब वह हाथ जोड़कर ऑखे बन्द करके ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसा मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। एकाग्रता और निरन्तर ध्यान से उसकी आत्मा दिव्य होती जाती थी। इच्छाएँ आपही-आप गायब हो गयीं। चित्त की वृत्ति ही बदल गयी। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थनाएँ उस मातृ-स्नेह पूर्ण अञ्चल की भाँति, जो बालक को ढक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती हैं।

जिस दिन अहल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गयी है, उसे आनन्द के बदले भय होने लगा––वह न जाने कितने दुर्बल हो गये होंगे, न-जाने उनकी सूरत कैसी बदल गयी होगी। कौन जाने, हृदय बदल गया हो। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाय, कहों में चिल्लाकर रोने न लगूँ। अपने दिल को बार-बार मजबूत करती थी।

प्रातःकाल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी वन्दना करती रही। माघ का महीना था, आकाश में बादल छाये हुए थे, इतना कुहरा पड़ रहा था कि सामने की चीज़ न सूझती थी। सरदी के मारे लोगों का बुरा हाल था। घरों को मेहरियाँ अँगीठियाँ लिये ताप रही थी, धन्धा करने कौन जाय। मजदूरी का फाका करना मंजूर था; पर काम पर जाना मुश्किल मालुम होता था। दूकानदारों को दूकान की परवा न थी, बैठे आग तापते थे; यमुना मे नित्य स्नान करनेवाले भक्त-जन भी आज तट पर नजर न आते थे। सड़कों पर, बाजार में, गलियों में, सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसा हो कोई विपत्ति का मारा दूकानदार था, जिसने दूकान खोली हो। बस, अगर चलते-फिरते नजर आते थे, तो वे दफ्तरों के बाबू थे, जो सरदी से सिकुहे, जेब में हाथ डाले, कमर टेढ़ी किये, लपके चले जाते थे। अहल्या इसी वक्त यशोदानन्दनजी के साथ गाड़ी में बैठकर जेल चली। उसे उल्लास न था, आनन्द न था, शंका और भय से दिल कॉप रहा था, मानो कोई अपने रोगी मित्र को देखने जा रहे हो। जेल में पहुँचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गयी, जहाँ एक टाट का टुकड़ा पड़ा था। उसने अहल्या को उस टाट पर बैठने का इशारा किया। तब एक कुरसी मँगवाकर आप उस पर बैठ गयी और चौकीदार से कहा––अब यहाँ सब ठीक है, कैदी को लाओ।

अहल्या का कलेजा धड़क रहा था। उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढाँढस हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों से लिपट जाती। सिर झुकाये बैठी यी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आये। उनके सिर पर कनटोप था और देह पर एक आधी आस्तीन का कुरता; पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रहो थी। उनका रंग पीला पड़ गया या, दाढ़ी के बाल बड़े