किस देवता के आशीर्वाद से उसमें इतनी इन्सानियत बच रही थी। और जितने बार्डर भोजन लाते, वे या तो चक्रधर को अनायास दो-चार ऐंडी बैंड़ी सुना देते, या चुपके से खाना रखकर चले जाते। चक्रधर को चरित्र ज्ञान प्राप्त करने का यह बहुत ही अच्छा अवसर मिलता था। बूढ़े वार्डर ने सतर्क भाव से कहा––मिलने को तो मिल जायगा, पर किसी ने देख लिया, तो क्या होगा?
इस वाक्य ने चक्रधर को संभाल लिया। उनकी विवेक-बुद्धि, जो क्षण भर के लिए मोह में फँस गयी थी, नाग उठी। बोले––नहीं, मैं योंही पूछता था। यह कहते कहते लज्जा से उनकी जबान बन्द हो गयी। जरा-सी बात के लिए इतना पतन!
इसके बाद उस बार्डर ने फिर कई बार पूछा––कहो तो पिंसिन कागद ला दूँ, मगर चक्रधर ने हर दफ़ा यही कहा––मुझे जरूरत नहीं।
बाबू यशोदानन्दन को ज्योंही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गये हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे, पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणतः कैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रिवायत भी न की गयी थी, पर यशोदानन्दन अवसर पड़ने पर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा जोर लगाकर अन्त में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली-अपने लिए नहीं, अहल्या के लिए। उस विरहिणी की दशा दिनों दिन खराब हो जाती थी। जब से चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह भी कैदियों की सी जिन्दगी बसर करने लगी। चक्रधर जेल में भी स्वतन्त्र थे, वह भाग्य को अपने पैरों पर झुका सकते थे। अहल्या घर में भी कैद थी, वह भाग्य पर विजय न पा सकती थी। वह केवल एक बार बहुत थोड़ा-सा खाती और वह भी रूखा-सूखा। वह चक्रधर को अपना पति समझती थी। पति को ऐसी कठिन तपस्या देखकर उसे आप ही आप बनाव-शृङ्गार से, खाने पीने से, हँसने बोलने से अरुचि होती थी। कहाँ पुस्तकों पर जान देती थी, कहाँ अब उनकी ओर ऑख उठाकर न देखती। चारपाई पर सोना भी छोड़ दिया था। केवल जमीन पर एक कम्बल बिछाकर पड़ रहती। बैसाख जेठ की गरमी का क्या पूछना, घर की दीवारें तवे की तरह तपती है। घर भाड़ सा मालूम होता है। रात को खुले मैदान में भी मुश्किल से नींद आती है, लेकिन अहल्या ने सारी गरमी एक छोटी-सी बन्द कोठरी में सोकर काट दी। माघ पूस की सरदी का क्या पूछना। प्राण तक कांपते हैं। लिहाफ के बाहर मुँह निकालना मुश्किल होता है। पानी पीने से जूड़ी-सी चढ आती है। लोग आग पर पतंगों की भाँति गिरते हैं, लेकिन अहल्या के लिए वही कोठरी की जमीन थी और एक फटा हुआ कम्बल। सारा घर समझाता था––क्यों इस तरह प्राण देती हो? तुम्हारे प्राण देने से चक्रधर का कुछ उपकार होता, तो एक बात भी थी। व्यर्थ काया को क्यों कष्ट देते हो? इसका उसके पास यही जवाब था––मुझे जरा भी कष्ट नहीं। आप लोगों को न जाने कैसे मैदान में गरमी लगती है, मुझे तो कोठरी में खूब नींद आती है। आप लोगों को न जाने कैसे सरदी लगती है, मुझे तो कम्बल में ऐसी