लय है, जो हमें स्वराज्य के सिद्धान्त सिखाता है, हमारे पुराने कुसंस्कारों को मिटाता है, हमारी मुंदी हुई आँखें खोलता है। इसके लिए ईश्वर का गिला करने की जरूरत नहीं। हमें उनको धन्यवाद देना चाहिए। अन्त को इस अन्तर्द्वन्द्व में उनकी आत्मा ने विजय पायी। सारी मन की अशान्ति, क्रोध और हिंसात्मक वृत्तियाँ उसी विजय में मग्न हो गयी। मन पर आत्मा का राज्य हो गया। इसको परवा न रही कि ताजी हवा मिलती है या नही, भोजन कैसा मिलता है, कपड़े कितने मैले हैं, उनमे कितने चिलवे पड़े हुए हैं कि खुजाते-खुजाते देह में दिदोरे पड़ जाते हैं। इन कष्टों की ओर उनका ध्यान ही न जाता। मन अन्तर्जगत् की सैर करने लगा। यह नयी दुनिया, जिसका अभी तक चक्रधर को बहुत कम ज्ञान था, इस लोक से कहीं ज्यादा पवित्र, उज्ज्वल और शान्तिमय थी। यहाँ रवि की मधुर प्रभात किरणों में, इन्दु की मनोहर छटा में, वायु के कोमल संगीत में, आकाश की निर्मल नीलिमा में, एक विचित्र ही आनन्द था। वह किसी समाधिस्थ योगी की भँति घण्टों इस अन्तर्लोक में विचरते रहते। शारीरिक कष्टों से अब उन्हें विराग-सा होने लगा। उनकी ओर ध्यान देना वह तुच्छ समझते थे। कभी-कभी वह गाते। मनोरंजन के लिए कई खेल निकाले। अँधेरे मे अपनी लुटिया लुढ़का देते और उसे एक ही खोज में उठा लाने की चेष्टा करते। अगर उन्हें किसी चीज़ की जरूरत मालूम होती, तो वह प्रकाश था। इसलिए नहीं कि वह अन्धकार से ऊब गये थे; बल्कि इसीलिए कि वह अपने मन में उमड़नेवाले भावों को लिखना चाहते थे। लिखने की सामग्रियों के लिए उनका मन तड़पकर रह जाता। धीरे-धीरे उन्हें प्रकाश की भी जरूरत न रही। उन्हें ऐसा विश्वास होने लगा कि मैं अँधेरे में भी लिख सकता हूँ। यही न होगा कि पंक्तियाँ सीधी न होगी; पर पंक्तियों को दूर-दूर रखकर और शब्दों को अलग-अलग लिखकर वह इस मुश्किल को आसान कर सकते थे। सोचते, कभी यहाँ से बाहर निकलने पर उस लिखावट का पढ़ने में कितना आनन्द आयेगा, कितना मनोरंजन होगा! लेकिन लिखने का सामान कहाँ। बस, यही एक ऐसी चीज थी, जिसके लिए यह कभी-कभी विकल हो जाते थे। विचार को ऐसे अथाह सागर में डूबने का मौका फिर न मिलेगा और ये मोती फिर हाथ न पायेंगे। लेकिन कैसे मिले।
चक्रधर के पास कभी कभी एक बूढ़ा बार्डर भोजन लाया करता था। वह बहुत ही हँसमुख आदमी था। चक्रधर को प्रसन्नमुख देखकर दोचार बातें कर लेता था। आह! उससे बातें करने के लिए चक्रधर लालायित रहते थे। उससे उन्हें बन्धुत्व-सा हो गया था। वह कई बार पूछ चुका था कि बाबूजी चरस-तम्बाखू की इच्छा हो, तो हमसे कहना। चक्रधर को खयाल आया, क्यों न उससे एक पेंसिल और थोड़े से कागज के लिए कहूँ। इस उपकार का बदला कभी मौका मिला तो चुका दूंगा। कई दिनों तक तो वह इसी संकोच में पड़े रहे कि उससे कहूँ या नहीं। आखिर एक दिन उनसे न रह गया, पूछ ही बैठे––क्यों जमादार, यहाँ कहाँ कागज पेंसिल तो मिलेगी? बूढ़ा वार्डर उनकी पूर्व कथा सुन चुका था, कुछ लिहाज करता था। मालूम नहीं