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[कायाकल्प
 

में सड़ायेंगे, लेकिन अब तो लूटा ही उखड़ गया, उछले किस बिरते पर? चक्रधर इस इलजाम से बरी ही न हुए, बल्कि उनकी पहली सजा भी एक साल घटा दी गयी। मिस्टर जिम तो ऐसा जामे से बाहर हुए कि बस चलता, तो गुरुसेवक को गोली मार देते। और कुछ न कर सके, तो चक्रधर को तीसरे ही दिन आगरे भेज दिया। लेकिन ईश्वर न करे कि किसी पर हाकिमों की टेढ़ी निगाह हो। चक्रधर की मीआद घटा टी गयी, लेकिन कर्मचारियों को सख्त ताक़ीद कर दी गयी थी कि कोई क़ैदी उनसे बोलने तक न पाये, कोई उनके कमरे के द्वार तक भी न जाने पाये, यहाँ तक कि कोई कर्मचारी भी उनसे न बोले। साल भर में दस साल की क़ैद का मजा चखाने की हिकमत सोच निकाली गयी। मजा यह कि इस धुन में चक्रधर को कोई काम भी न दिया गया। बस, आठों पहर उसी चार हाथ लम्बी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रही। जेल के विधाताओं में चाहे जितने अवगुण हो, पर वे मनोविज्ञान के पण्डित होते हैं। किस दण्ड से आत्मा को अधिक से अधिक कष्ट हो सकता है, इसका उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान होता है। मनुष्य के लिए बेकारी से बड़ा और कोई कष्ट नहीं है, इसे वे खूब जानते हैं। चक्रधर के कमरे का द्वार दिन में केवल दो बार खुलता था। बार्डर खाना रखकर किवाड़ बन्द कर देता था। आह! कालकोठरी तू मानवी पशुता की सबसे क्रूर लीला, सबसे उज्ज्वल कीर्ति है। तू वह जादू है, जो मनुष्य को आँखें रहते अन्धा, कान रहते बहरा, जीभ रहते गंगा बना देती है। कहाँ है सूर्य की वे किरणें, जिन्हें देखकर आँखो को अपने होने का विश्वास हो, कहाँ है वह वाणी, जो कानों को जगाये? गन्ध है, किन्तु ज्ञान तो भिन्नता में है। जहाँ दुर्गन्ध के सिवा और कुछ नहीं, वहाँ गन्ध-शान कैसे हो, बस, शून्य है, अन्धकार है। वहाँ पंच-भूतों का अस्तित्व ही नहीं। कदाचित् ब्रह्मा ने इस अवस्था की कल्पना ही न की होगी, कदाचित् उनमें यह सामर्थ्य ही न थी। मनुष्य की आविष्कार-शक्ति कितनी विलक्षण है। धन्य हो देवता, धन्य हो।

चक्रधर के विचार और भाव इतनी जल्द बदलते रहते थे कि कभी-कभी उन्हें भ्रम होने लगता था कि मैं पागल तो नहीं हुआ जा रहा हूँ? कभी सोचते-ईश्वर ने ऐसी सृष्टि की रचना ही क्यों की, जहाँ इतना स्वार्थ, द्वेष और अन्याय है? क्या ऐसी पृथ्वी न बन सकती थी, जहाँ सभी मनुष्य, सभी जातियाँ प्रेम और आनन्द के साथ संसार में रहतीं? यह कौन-सा इन्साफ है कि कोई तो दुनिया के मजे उड़ाये, कोई धक्के खाये, एक जाति दूसरी का रक्त चूसे और मछों पर ताव दे। दूसरी कुचली जाय और दाने को तरसे? ऐसा अन्यायमय संसार ईश्वर की सृष्टि नहीं हो सकता। पूर्व-संसार का सिद्धान्त ढोंग मालूम होता है, जो लोगों ने दुखियों और दुर्बलों के आँसू पोछने के लिए गढ़ लिए हैं। दो चार दिन यही संशय उनके मन को मथा करता। फिर एकाएक विचार-धारा पलट जाती। अन्धकार में प्रकाश की ज्योति फैल जाती, काँटों की जगह फूल नजर आने लगते। पराधीनता एक ईश्वर-विधान का रूप धारण कर लेती, जिसमें विकास और जागृति का मंत्र छिपा हुया है। नहीं, पराधीनता दण्ड नहीं है, यह शिक्षा–