गुरुसेवक नहीं मनोरमा, मैं अब यह तजवीज़ नहीं फाड़ सकता। बात यह है कि मैंने पहले ही से दिल में एक बात स्थिर कर ली थी, और सारी शहादतें मुझे उसी रंग में रंगी नजर आती थीं। सत्य की मैंने तलाश न की थी, तो सत्य मिलता कैसे? अब मालूम हुआ कि पक्षपात क्योंकर लोगों की घाँखों पर परदा डाल देता है। अब जो सत्य की इच्छा से बयानों को देखता हूँ, तो स्पष्ट मालूम होता है कि चक्रधर बिलकुल निर्दोष हैं। जान-बूझकर अन्याय न करूँगा।
मनोरमा––आपने राजा साहब की त्योरियाँ देखीं?
गुरुसेवक––हाँ, खूब देखों, पर उनकी अप्रसन्नता के भय से अपनी तजवीज़ नहीं फाड़ सकता। यह पहली तजवीज़ है, जो मैने पक्षपात-रहित होकर लिखी है और जितना संतोष आज मुझे अपने फैसले पर है, उतना और कभी न हुआ था। अब तो कोई लाख रुपये भी दे, तो भी इसे न फाड़ूँ।
मनोरमा–– अच्छा, तो लाइए, मैं फाड़ दूं।
गुरुसेवक––नहीं मनोरमा, औंघते हुए आदमी को मत ठेलो, नहीं तो फिर वह इतने जोर से गिरेगा कि उसकी आत्मा तक चूर-चूर हो जायगी। मुझे तो विश्वास है कि इस तजवीज़ से चक्रधर की पहली सजा भी घट जायगी। शायद सत्य कलम को भी तेज कर देता है। मैं इन तीन घण्टों में बिना चाय का एक प्याला पिये ४० पृष्ठ लिख गया, नहीं तो हर दस मिनट में चाय पीनी ही पढ़ती थी। बिना चाय की मदद के कलम ही न चलती थी।
मनोरमा–– लेकिन मेरे सिर इसका एहसान न होगा?
गुरुसेवक––सचाई आप ही अपना इनाम है, यह पुरानी कहावत है। सत्य से आत्मा भी बलवान हो जाती है। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, अब मुझे ज़रा भी भय नहीं है।
मनोरमा––अच्छा, अब मैं जाऊँगी। लालाजी घबरा रहे होंगे।
मामी––हाँ-हाँ; जरूर जाओ, वहाँ माताजी के स्तनों में दूध उतर आया होगा। यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है?
मनोरमा––भाभी, लौंगी अम्माँ को तुम जितना नीच समझती हो, उतनी नीच नहीं हैं। तुम लोगों के लिए वह अब भी रोया करती हैं।
भाभी––अब बहुत बखान न करो, जी जलता है। वह तो मरती भी हो, तो भी देखने न जाऊँ। किसी दूसरे घर में होती, तो अभी तक बरतन माँजती होती। यहाँ आकर रानी बन गयी। लो उठा चला, आज तुम्हारा गाना सुनूँगी। बहुत दिनों के बाद पंजे में आयी हो। मनोरमा घर न जा सकी। भोजन करके भावज के साथ लेटी। बड़ी रात तक दोनों मे बातें होती रहीं। आखिर भाभी को नींद आ गयी, पर मनोरमा की आँखों में नींद कहाँ। वह तो पहले ही सो चुकी थी। वही स्वप्न उसके मस्तिष्क में चक्कर लगा रहा