यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
१६१
 

थी, उसका मन राजा साहब की ओर खिंचा जाता था। मेरे लिए उन्होंने इतना कष्ट, इतना अपमान सहा। जब वृत्तान्त समाप्त हुआ, तो वह प्रेम और भक्ति से गद्‌गद् होकर राजा साहब के पैरों पर गिर पड़ी और काँपती हुई आवाज से बोली—मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूँगी।

आज ज्ञातरूप से उसके हृदय में प्रेम का अंकुर पहली बार जमा। वह एक उपासक की भाँति अपने उपास्य देव के लिए बाग में फूल तोड़ने आयी थी; पर बाग की शोभा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी। फूल लेकर चली, तो बाग की सुरम्य छटा उसकी आँखों में समायी हुई थी। उसके रोम रोम से यही ध्वनि निकलती थी—आपका एहसान कभी न भूलूँगी। स्तुति के शब्द उसके मुँह तक आकर रह गये।

वह घर चली, तो चारो ओर अंधकार और सन्नाटा था; पर उसके हृदय में प्रकाश फैला हुआ था और प्रकाश में संगीत की मधुर ध्वनि प्रवाहित हो रही थी। एक क्षण के लिए वह चक्रधर की दशा भी भूल गयी, जैसे मिठाई हाथ में लेकर बालक अपने छिदे हुए कान की पीड़ा भूल जाता है।


२०

मिस्टर जिम ने दूसरे दिन हुक्म दिया कि चक्रधर को जेल से निकालकर शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाय। वह उन जिद्दी आदमियों में न थे, जो मार खाकर भी बेहयाई करते हैं। सवेरे परवाना पहुँचा। राजा साहब भी तड़के ही उठकर जेल पहुँचे। मनोरमा वहाँ पहले ही से मौजूद थी; लेकिन चक्रधर ने साफ कह दिया—मैं यहीं रहना चाहता हूँ। मुझे और कहीं भेजने की जरूरत नहीं।

दारोगा—आप कुछ सिड़ी तो नहीं हो गये हैं? कितनी कोशिश से तो राजा साहब ने यह हुक्म दिलाया, और आप सुनते ही नहीं? क्यों जान देने पर तुले हो? यहाँ इलाज-विलाज खाक न होगा।

चक्रधर—कई आदमियों को मुझसे भी ज्यादा चोट आयी है। मेरा मरना-जीना उन्हीं के साथ होगा। उनके लिए ईश्वर है, तो मेरे लिए भी ईश्वर है।

दारोगा ने बहुत समझाया, राजा साहब ने भी समझाया, मनोरमा ने रो-रोकर मिन्नतें कीं; लेकिन चक्रधर किसी तरह राजी न हुए। तहसीलदार साहब को अन्दर आने की आज्ञा न मिली; लेकिन शायद उनके समझाने का भी कुछ असर न होता। दोपहर तक सिरमगजन करने के बाद लोग निराश होकर लौटे।

मुंशीजी ने कहा—दिल नहीं मानता, पर जी यही चाहता है कि इस लौंडे का मुँह न देखूँ!

राजा—इसने बात ही क्या थी। मेरी सारी दौड़-धूप मिट्टी में मिल गयी।

मनोरमा कुछ न बोली। चक्रधर जो कुछ कहते या करते थे, उसे उचित जान पड़ता था। भक्त को आलोचना से प्रेम नहीं। चक्रधर का यह विशाल त्याग उसके हृदय में खटकता था; पर उसकी आत्मा को मुग्ध कर रहा था। उसकी आँखें गर्व से