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[कायाकल्प
 

मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़पकर पिंजड़े में प्राण देने के सिवा वह और क्या करेगी! मोती में चमक है, वह अनमोल है, लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बाँध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी।

मनोरमा ने फिर पूछा—भगवान् सज्जन लोगों को क्यों इतना कष्ट देते हैं, अम्माँ? बाबूजी का सा सज्जन दूसरा कौन होगा। उनको भगवान् इतना कष्ट दे रहे हैं! मुझे कभी कुछ नहीं होता, कभी सिर भी नहीं दुखता। मुझे क्यों कभी कुछ नहीं होता, अम्माँ?

लौंगी—तुम्हारे दुश्मन को कुछ हो बेटी, तुम तो कभी घड़ी-भर चैन न पाती थीं। तुम्हें गोद में लिये रात-भर भगवान् का नाम लिया करती थी।

सहसा मनोरमा के मन में एक बात आयी। उसने बाहर आकर मोटर तैयार करायी और दम-के-दम में राज भवन की ओर चली। राजा साहब इसी तरफ आ रहे थे। मनोरमा को देखा, तो चौंके। मनोरमा घबरायी हुई थी।

राजा—तुमने क्यों कष्ट किया? मैं तो आ रहा था।

मनोरमा—आपको जेल के दंगे की खबर मिली?

राजा—हाँ, मुन्शी वज्रधर अभी कहते थे।

मनोरमा—मेरे बाबूजी को गहरा घाव लगा है।

राजा—हाँ, यह भी सुना।

मनोरमा—तब भी आपने उन्हें जेल से बाहर अस्पताल में लाने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की? आपका हृदय बड़ा कठोर है।

राजा ने कुछ चिढ़कर कहा—तुम्हारे-जैसा उदार हृदय कहाँ से लाऊँ।

मनोरमा—मुझसे माँग क्यों नहीं लेते? बाबूजी को बहुत गहरा घाव लगा है, और अगर यत्न न किया गया, तो उनका बचना कठिन है। जेल में जैसा इलाज होगा, आप जानते ही हैं। न कोई आगे, न कोई पीछे, न मित्र, न बन्धु। आप साहब को एक खत लिखिए कि बाबूजी को अस्पताल में लाया जाय।

राजा—साहब मानेंगे?

मनोरमा—इतनी जरा-सी बात न मानेंगे?

राजा—न-जाने दिल में क्या सोचें।

मनोरमा—आपको अगर बहुत मानसिक कष्ट हो रहा हो, तो रहने दीजिए। मैं खुद साहब से मिल लूँगी।

राजा साहब यह तिरस्कार सुनकर काँप उठे। कातर होकर बोले—मुझे किस बात का कष्ट होगा। अभी जाता हूँ।

मनोरमा—लौटिएगा कब तक?

राजा—कह नहीं सकता।

यह कहकर राजा साहब मोटर पर ना बैठे और शोफर से मिस्टर जिम के बँगले पर चलने को कहा। मनोरमा की निष्ठुरता से उनका चित्त बहुत खिन्न था। मेरे आराम