दूसरे दिन प्रातःकाल लौंगी ने पंडित की रट लगायी और दीवान साहब को विवश होकर मुंशी वज्रधर के पास जाना पड़ा।
वज्रधर सारी कथा सुनकर बोले—आपने यह बुरा रोग पाल रखा है। एक बार डाँटकर कह दीजिए—चुपचाप बैठी रह, तुझे इन बातों से क्या मतलब? फिर देखूँ वह कैसे बोलती है!
दीवान—भई, इतनी हिम्मत मुझमें नहीं है। वह कभी जरा रूठ जाती है, तो मेरे हाथ-पाँव फूल जाते हैं। मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता कि बिना उसके मैं जिन्दा कैसे रहूँगा। मैं तो उससे बिना पूछे भोजन भी नहीं कर सकता। वह मेरे घर की लक्ष्मी है। आपकी किसी ज्योतिषी से जान पहचान है?
मुंशी—जान-पहचान तो बहुतों से है, लेकिन देखना तो यह है कि काम किससे निकल सकता है। कोई सच्चा आदमी तो यह स्वाँग भरने न जायगा। कोई पण्डित बनाना पड़ेगा।
दीवान—यह तो बड़ी मुश्किल हुई।
मुंशी—मुश्किल क्या हुई। मैं अभी बनाये देता हूँ। ऐसा पण्डित बना दूँ कि कोई भाँप न सके। इन बातों में क्या रखा है?
यह कहकर मुन्शीजीने झिनकू को बुलाया। वह एक ही छँटा हुआ था। फौरन तैयार हो गया। घर जाकर माथे पर तिलक लगाया, गले में रामनामी चादर डाली, सिर पर एक टोपी रखी और एक बस्ता बगल में दबाये आ पहुँचा। मुन्शीनी उसे देखकर बोले—यार, जरा-सी कसर रह गयी। तोंद के बगैर पण्डित कुछ जँचता नहीं। लोग यही समझते हैं कि इनको तर माल नहीं मिलते, जभी तो ताँत हो रहे हैं। तोंदल आदमी की शान ही और होती है, चाहे पण्डित बने, चाहे सेठ, चाहे तहसीलदार ही क्यों न बन जाय। उसे सब कुछ भला मालूम होता है। मैं तोंदल होता तो अब तक न जाने किस ओहदे पर होता। सच पूछो, तो तोंद न रहने ही के कारण अफसरों पर मेरा रोब न जमा। बहुत घी-दूध खाया, पर तकदीर में बड़ा आदमी होना न बदा था, तोंद न निकली, न निकली। तोंद बना लो, नहीं तो उल्लू बनाकर निकाल दिये जाओगे, या किसी तोंदूमल को पकड़ो।
झिनकू—सरकार, तोंद होती, तो आज मारा-मारा क्यों फिरता? मुझे भी न लोग झिनकू उस्ताद कहते! कभी तबला न होता तो तोंद ही बना देता, मगर तोंद न रहने में कोई हरज नहीं है, यहाँ कई पण्डित बिना तोंद के भी हैं।
मुन्शी—कोई बड़ा पण्डित भी है बिना तोंद का?
मुन्शी—नहीं सरकार, कोई बड़ा पण्डित तो नहीं है। तोंद के बिना कोई बड़ा हो कैसे जायगा? कहिये तो कुछ कपड़े लपेटूँ?
मुन्शी—तुम तो कपड़े लपेटकर पिंडरोगी से मालूम होगे। तकदीर पेट पर सबसे ज्यादा चमकती है, इसमें शक नहीं, लेकिन और अंगों पर भी तो कुछ-न-कुछ असर