यह कहकर मनोरमा चली गयी। उसके जाने के बाद दीवान साहब कई मिनट तक जमीन की ओर ताकते रहे। अन्त में लौंगी से बोले—तुमने इसकी बातें सुनीं?
लौंगी—सुनी क्यों नहीं, क्या बहरी हूँ?
ठाकुर—फिर?
लौंगी—फिर क्या, लड़के हैं, जो मुँह में आया बकते हैं, उनके बकने से क्या होता है। मा-बाप का धर्म है कि लड़कों के हित ही को करें। लड़का माहुर माँगे, तो क्या मा-बाप उसे माहुर दे देंगे? कहिए, मुंशीजी!
मुंशी—हाँ, यह तो ठीक ही है; लेकिन जब लड़के अपना भला-बुरा समझने लगें, तो उनका रुख देखकर ही काम करना चाहिए।
लौंगी—जब तक मा-बाप जीते हैं, तब तक लड़कों को बोलने का अख्तियार ही क्या है। आप जाकर राजा साहब से यही कह दीजिए।
मुंशी—दीवान साहब, आपका भी यही फैसला है?
ठाकुर—साहब, मैं इस विषय में सोचकर जवाब दूँगा। हाँ, आप मेरे दोस्त हैं; इस नाते आपसे इतना कहता हूँ कि आप कुछ इस तरह गोल-मोल बातें कीजिए कि मुझ पर कोई इलजाम न आने पाये। आपने तो बहुत दिनों अफसरी की है, और अफसर लोग ऐसी बातें करने में निपुण भी होते हैं।
मुंशीजी मन में लौंगी को गालियाँ देते हुए यहाँ से चले। जब फाटक के पास पहुँचे, तो देखा कि मनोरमा एक वृक्ष के नीचे घास पर लेटी हुई है। उन्हें देखते ही वह उठकर खड़ी हो गयी। मुंशीजी जरा ठिठक गये और बोले—क्यों मनोरमा रानी, तुमने जो मुझे सलाह दी, उस पर खुद अमल कर सकती हो?
मनोरमा ने शर्म से सुर्ख होकर कहा—यह तो मेरे माता पिता के निश्चय करने की बात है।
मुंशीजी ने सोचा, अगर जाकर राजा साहब से कहे देता हूँ कि दीवान साहब ने साफ इन्कार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। राजा साहब कहेंगे, फिर गये ही किस बिरते पर थे। शायद यह भी समझें कि इसे मामला तय करने को तमीज ही नहीं। तहसीलदारी नहीं की, भाड़ झोंकता रहा, इसलिए आपने जाकर दून को हाँकनी शुरू की—हुजूर, बुढ़िया बला की चुडैल है; हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है, उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।
राजा साहब ने अधीर होकर पूछा—आखिर आप तय क्या कर आये?
मुंशी—हुजूर के एकबाल से फतह हुई, मगर दीवान साहब खुद आपसे शादी की बातचीत करते काँपते हैं। आपकी तरफ से बातचीत शुरू हो, तो शायद उन्हें इन्कार न होगा। मनोरमा रानी तो सुनकर बहुत खुश हुईं।
राजा—अच्छा! मनोरमा खुश हुई! खूब हँसी होगी। आपने कैसे जाना कि खुश है?