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कायाकल्प]
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सिंह से लड़की का विवाह न करूँ। तूने मुझे समझा क्या है? लाख गया—बीता हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ।

दीवान साहब उसी जोश में उठे, आकर मुंशीजी से बोले—आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नही।

लौंगी भी ठाकुर साहब के पीछे-पीछे आयी थी। मुंशीजी ने उसकी तरफ तिरस्कार से देखकर कहा—आप इस वक्त गुस्से में मालूम होते हैं। राजा साहब ने बड़ी मिन्नत करके और बहुत डरते-डरते आपके पास यह सन्देशा भेजा है। आपने मंजूर न किया, तो मुझे भय है कि वह जहर न खा लें।

लौंगी—भला, जब जहर खाने लगेंगे, तब देखी जायगी। इस वक्त आप जाकर यही कह दीजिए।

मुंशी—दीवान साहब, इस मामले में जरा सोच-समझकर फैसला कीजिए।

लौंगी—राजा साहब के दौलत के सिवा और क्या है? दौलत ही तो संसार में सब कुछ नहीं।

मुंशी—सब कुछ न हो; लेकिन इतनी तुच्छ भी नहीं।

लौंगी—शादी-ब्याह के मामले में मैं उसे तुच्छ समझती हूँ।

मुंशी—यह मै कब कहता हूँ कि दौलत संसार की सब चीजों से बढ़कर है। इतना आप लोगों की दुआ से जानता हूँ कि सुख का मूल सन्तोष है। एक आदमी जल और स्थल के सारे रत्न पाकर गरीब रह सकता है, दूसरा फटे वस्त्रों और रूखी रोटियों में भी धनी हो सकता है।

सहसा मनोरमा आकर खड़ी हो गयी। यह वाक्य उसके कान में भी पड़ गया। समझी, धन की निन्दा हो रही है। बात काटकर बोली—इसे सन्तोष नही, मूर्खता कहना चाहिए।

ठाकुर—अगर सन्तोष मूर्खता है, तो संसार-भर के नीति-ग्रन्थ, उपनिषदों से लेकर कुरान तक मूर्खता के ढेर हो जायँगे। सन्तोष से अधिक और किसी तप की महिमा नहीं गायी गयी है। धन ही पाप, द्वेष और अन्याय का मूल है।

मनोरमा—संसार के धर्मग्रन्थ, उपनिषदों से लेकर कुरान तक, उन लोगों के रचे हुए हैं जो रोटियों को मुहताज थे। उन्होंने अंगूर खट्‌टे समझकर धन की निन्दा की, तो कोई आश्चर्य नहीं। अगर कुछ ऐसे आदमी है, जो धनी होकर भी धन की निन्दा करते है, तो मैं उन्हें धूर्त समझती हूँ, जिन्हें अपने सिद्धान्त पर व्यवहार करने का साहस नहीं।

ठाकुर साहब ने समझा, मनोरमा ने यह व्यंग उन्हीं पर किया है। चिढ़कर बोले—ऐसे लोग भी तो हो गये हैं, जिन्होंने धन ही नहीं, राज-पाट पर भी लात मार दी है।

मनोरमा—ऐसे आदमियों के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं। मेरी समझ में तो धन ही सुख और कल्याण का मूल है। संसार में जितना परोपकार होता है, धनियों ही के हाथों होता है।