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कायाकल्प]
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लौंगी ने कहा—तहसीलदार साहब, कैसी बातें करते हो? हमें अपनी रानी को धन के साथ बेचना थोड़े ही है। ब्याह जोड़ का होता है कि ऐसा बेजोड़। लड़की कंगाल को दे दे, पर बूढे को न दे। गरीब रहेगी तो क्या, जन्म-भर का रोना-झीकना तो न रहेगा।

मुंशी—तो राजा बूढे हैं?

लौंगी—और नहीं क्या छैला-जवान हैं?

मुंशी—अगर यह विवाह न हुआ, तो समझ लो कि ठाकुर साहब कहीं के न रहेंगे। तुम नीच जात राजाओं का स्वभाव क्या जानो? राजा लोगों को जहाँ किसी बात की धुन सवार हो गयी, फिर उसे पूरा किये बिना न मानेंगे, चाहे उनका राज्य ही क्यों न मिट जाय। राजाओं की बात को दुलखना हँसी नहीं है, क्रोध में आकर न जाने क्या हुक्म दे बैठें। बात तो समझती ही नही हो, सब धान बाईस पसेरी ही तौलना चाहती हो।

लौंगी—यह तो अनोखी बात है कि या तो अपनी बेटी दे, या मेरा गाँव छोड़। ऐसी धमकी देकर थोड़े ही ब्याह होता है।

मुंशी—राजाओं-महाराजाओं का काम इसी तरह होता है। अभी तुम इन राजा साहब को जानती नहीं हो। सैकड़ों आदमियों को भुनवा के रख दिया, किसी ने पूछा तक नहीं। अभी चाहे जिसे लुटवा लें, चाहे जिसके घर में आग लगवा दें। अफसरों से दोस्ती है ही, कोई उनका कर ही क्या सकता है? जहाँ एक अच्छी-सी डाली भेज दी, काम निकल गया।

लौंगी—तो यों कहो कि पूरे डाकू हैं।

मुंशी—डाकू कहो, लुटेरे कहो, सभी कुछ हैं। बात जो थी मैंने साफ-साफ कह दी। यह चारपाई पर बैठकर पान चबाना भूल जायगा।

लौंगी—तहसीलदार साहब, तुम तो धमकाते हो, जैसे हम राजा के हाथों बिक गये हो। रानी रुठेगी, अपना सोहाग लेंगी। अपनी नौकरी ही लेंगे, ले जायँ। भगवान् का दिया खाने-भर को बहुत है।

मुंशी—अच्छी बात है; मगर याद रखना, खाली नौकरी से हाथ धोकर गला न छूटेगा। राजा लोग जिसे निकालते हैं कोई-न-कोई दाग भी जरूर लगा देते हैं। एक झूठा इलजाम भी लगा देंगे, तो कुछ करते-धरते न बनेगा। यही कह दिया कि इन्होंने सरकारी रकम उड़ा ली है, तो बताओ क्या होगा? समझ से काम लो। बड़ों से रार मोल लेने में अपना निबाह नहीं है। तुम अपना मुँह बन्द रखो, हम दीवान साहब को राजी कर लेंगे। अगर तुमने भाँजी मारी, तो बला तुम्हारे ही सिर आयगी। ठाकुर साहब चाहे इस वक्त तुम्हारा कहना मान जायँ, पर जब चरखे में मन तो सारा गुस्सा तुम्हीं पर उतारेंगे। कहेंगे, तुम्हीं ने मुझे चौपट किया। सोचो जरा।

लौंगी गहरे सोच में पड़ गयी। वह और सब कुछ सह सकती थी, दीवान साहब