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[कायाकल्प
 


सोचता हूँ, किसके लिए यह जञ्जाल बढाऊँ।

इस भूमिका के बाद विवाह की चर्चा अनिवार्य थी।

राजा― मै अब क्या विवाह करूँगा? जब ईश्वर ने अब तक सतान न दी, तो अब कौन-सी आशा है?

मुशी―गरीबपरवर, अभी आपकी उम्र हो क्या है। मैने ८० बरस की उम्र में आदमियों के भाग्य जागते देखे हैं।

राजा―फिर मुझसे अपनी कन्या का विवाह कौन करेगा?

मुन्शी―अगर आपका जरा-सा इशारा पा गया होता, तो अब तक कभी बहूजी घर में आ गयी होती। राजा से अपनी कन्या का विवाह करना किसे बुरा लगता है!

राजा―लेकिन मुझे तो अब ऐसी स्त्री चाहिए, जो सुशिक्षित हो, विचारशील हो। राज्य के मामलों को समझती हो, अँगरेजी रहन-सहन से परिचित हो। बड़े-बड़े अफसर आते हैं। उनकी मेमो का आदर-सत्कार कर सके। घर को अँगरेजी ढग से सजा सके। बातचीत करने मे चतुर हो। बाहर निकलने में न झिझके। ऐसी स्त्री आसानी से नही मिल सकती। मिली भी, तो उसमें चरित्र-दोष अवश्य होंगे। जहाँ ऐसी स्त्रियों को देखता हूँ, भ्रष्ट ही पाता हूँ। मैं तो ऐसी स्त्री चाहता हूँ, जो इन गुणों के साथ निष्कलक हो। ऐसी एक कन्या मेरी निगाह में है, लेकिन वहाँ मेरी रसाई नहीं हो सकती।

मुन्शी―क्या इसी शहर में है?

राजा―शहर में ही नहीं, घर ही में समझिए।

मुन्शी―अच्छा, समझ गया। मैं तो चकरा गया कि इस शहर में ऐसा कौन राजा-रईस है, जहाँ हुजूर की रसाई नहीं हो सकती। वह तो सुनकर निहाल हो जायँगे, दौड़ते हुए करेंगे। कन्या सचमुच देवी है। ईश्वर ने उसे रानी बनने ही के लिए बनाया है। ऐसी विचारशील लड़की मेरी नजर से नहीं गुजरी।

राजा―आप जरा घरवालों को आजमाइए तो। आप जानते हैं न, दीवान साहब के घर की स्वामिनी लौंगी?

मुन्शी―वह क्या करेगी?

राजा―वही सब कुछ करेगी। दीवान साहब को तो उसने भेड़ा बना रखा है। और है भी अभिमानिनी। न उस पर लालच का कुछ दाँव चलता है, न खुशामद का।

मुन्शी―हुजर, उसकी कुञ्जी मेरे पास है। खुशामद से तो उसका मिजाज और भी बढता है। कितने ही बड़े दरजे पर पहुँच जाय, पर है तो वह नीच जात। उसे धमकाकर, मारने का भय दिखाकर, आप उससे जो काम चाहें करा सकते हैं। नीच जात बातों में नहीं, लातों ही से मानती हैं।

दूसरे दिन प्रात काल मुन्शीजी दीवान साहब के मकान पर पहुँँचे। दीवान साहब मनोरमा के साथ गगा-स्नान को गये हुए थे। लौगी अकेली बैठी हुई थी। मुन्शीनी फूले न समाये। ऐसा ही मौका चाहते थे। जाते ही जाते विवाह की बात छेड़ दी।