कल्याणमय हो सकता है! जो बालिका एक साधारण व्यक्ति के प्रति इतनी श्रद्धा रख सकती है, वह अपने पति के साथ कितना प्रेम करेगी, इसकी कल्पना से उनका चित्त फूल उठता था। जीवन स्वर्ग-तुल्य हो जायगा। और अगर परमात्मा की कृपा से किसी पुत्र का जन्म हुआ, तो कहना ही क्या! उसके शौर्य और तेज के सामने बड़े बड़े नरेश काँपेंगे। बड़ा प्रतापी, मनस्वी, कर्मशील राजा होगा, जो कुल को उज्ज्वल कर देगा। राजा साहब को इसकी लेशमात्र भी शंका न थी कि मनोरमा उन्हें बरने की इच्छा भी करेगी या नहीं। उनके विचार में अतुल सम्पत्ति अन्य सभी त्रुटियों को पूरा कर सकती थी।
दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। अब उनका विशेष आदर-सत्कार करने लगे। उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम न करते। दो-तीन बार उनके मकान पर भी गये और अपनी सज्जनता की छाप लगा आये। ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्टता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरो पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशाएँ और भी चमक उठीं। क्या उसका उनसे हँस-हँसकर बातें करना, बार बार उनके पास आकर बैठ जाना और उनकी बातों को ध्यान से सुनना, रहस्यपूर्ण नेत्रों से उनकी ओर ताकना और नित्य नयी छवि दिखाना, उसके मनोभावों को प्रकट न करता था? रहे दीवान साहब, वह सांसारिक जीव थे और स्वार्थ-सिद्धि के ऐसे अच्छे अवसर को कभी न छोड़ सकते थे, चाहे समाज इसका तिरस्कार ही क्यों न करे। हाँ, अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वह राजा साहब का आना-जाना पसन्द न करती थी। वह उनके इरादों को भाँप गयी थी और उन्हें दूर ही रखना चाहती थी। मनोरमा को बार-बार आँखों से इशारा करती थी कि अन्दर जा। किसी-न-किसी बहाने से उसे हटाने की चेष्टा करती रहती थी। उसका मुँह बन्द करने के लिए राजा साहब उससे लल्लो चप्पो की बातें करते और एक बार एक कीमती साड़ी भी उसको भेंट की; पर उसने उसकी ओर देखे बिना ही उसे लौटा दिया। राजा साहब के मार्ग में यही एक कंटक था और उसे हटाये बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुँच सकते थे। बेचारे इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुन्शीजी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया। वही एक ऐसे प्राणी थे, जो इस कठिन समस्या को हल कर सकते थे। एक दिन उन्हें एकान्त में बुलाया और राजसम्बन्धी बातें करने लगे।
राजा—इलाके का क्या हाल है? फसल तो अबकी बहुत अच्छी है।
मुंशी—हुजूर, मैने अपनी उम्र में ऐसी अच्छी फसल नहीं देखी। अगर पूरब के इलाके मे २०० कुएँ बन जाते, तो फसल दुगुनी हो जाती। पानी का वहाँ बड़ा कष्ट है।
राजा—मैं खुद इसी फिक्र में हूँ। कुएँ क्या, मैं तो एक नहर बनवाना चाहता हूँ। अरमान तो दिल में बड़े बड़े हैं; मगर सामने अँधेरा देखकर कुछ हौसला नहीं होता।