आत्मा कितनी पवित्र है, हृदय कितना सरल! धन्य होंगे उसके भाग्य, जिसकी तुम हृदयेश्वरी बनोगी, मगर इस अभागे को कभी अपनी सहानुभूति और सहृदयता से वंचित मत करना। मेरे लिए इतना ही बहुत है।
१७
राजा विशालसिह की जवानी कब की गुजर चुकी थी, किन्तु प्रेम से उनका हृदय अभी तक वञ्चित था। अपनी तीनों रानियों में केवल वसुमती के प्रेम की कुछ भूली हुईसी याद उन्हें आती थी। प्रेम वह प्याला नहीं है, जिससे आदमी छक जाय, उसकी तृष्णा सदैव बनी रहती है। राजा साहब को अब अपनी रानियाँ गँवारिनें-सी जँचती थीं, जिन्हें इसका जरा भी ज्ञान न था कि अपने को इस नयी परिस्थिति के अनुकूल कैसे बनायें, कैसे जीवन का आनन्द उठायें। वे केवल आभूषणों ही पर टूट रही थीं। रानी देवप्रिया के बहुमूल्य आभूषणों के लिए तो वह संग्राम छिड़ा कि कई दिन तक आपस में गोलियाँ-सी चलती रहीं। राजा साहब पर क्या बीत रही है, राज्य की क्या दशा है, इसकी किसी को सुध न थी। उनके लिए जीवन में यदि कोई वस्तु थी, तो वह रत्न और आभूषण थे। यहाँ तक कि रामप्रिया भी अपने हिस्से के लिए लड़ने-झगड़ने में सङ्कोच न करती थी। इस आभूषण-प्रेम के सिवा उनकी रुचि या विचार में कोई विकास न हुआ था। कभी-कभी तो उनके मुँह से ऐसी बातें निकल जाती थीं कि रानी देवप्रिया के समय की लौंडियाँ बाँदियाँ मुँह मोड़कर हँसने लगतीं। उनका यह व्यवहार देखकर राजा साहब का दिल उनसे खट्टा होता जाता था।
यों अपने अपने ढंग पर तीनों ही उनसे प्रेम करती थीं, वसुमती के प्रेम में ईर्ष्या थी, रोहिणी के प्रेम में शासन। और रामप्रिया का प्रेम तो सहामुभूति की सीमा के अन्दर ही रह जाता था। कोई राजा के जीवन को सुखमय न बना सकती थी, उनकी प्रेम तृष्णा को तृप्त न कर सकती थी। उन सरोवरों के बीच में वह प्यास से तड़प रहे थे—उस पथिक की भाँति जो गन्दे तालाबों के सामने प्यास से व्याकुल हो। पानी बहुत था, पर पीने लायक नहीं। उसमें दुर्गन्ध थी, विष के कीड़े। इसी व्याकुलता की दशा में मनोरमा मीठे, ताजे जल की गागर लिये हुए सामने से आ निकली—नहीं, उसने उन्हें जल पीने को निमन्त्रित किया—और वह उसकी ओर लपके, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं।
राजा साहब के हृदय में नयी नयी प्रेम-कल्पनाएँ अंकुरित होने लगीं। उसकी एकएक बात उन्हें अपनी ओर खींचती थी। वेष कितना सुन्दर था! वस्त्रों से सुरुचि झलकती थी, आभूषणों से सुबुद्धि। वाणी कितनी मधुर थी, प्रतिभा में डूबी हुई, एक एक शब्द हृदय की पवित्रता में रंगा हुआ। कितनी अद्भुत रूप-छटा है, मानों ऊषा के हृदय से ज्योतिर्मय मधुर संगीत की कोमल, सरस, शीतल ध्वनि निकल रही हो। वह अकेली आयी थी, पर यह विशाल दीवानखाना भरा-सा मालूम होता था। हृदय कितना उदार है, कितना कोमल! ऐसी रमणी के साथ जीवन कितना आनन्दमय, कितना