हृदय-कमल के जल-सिंचित दल की भाँति पवित्र शोर कोमल है, जिसमें सन्यासियों का-सा त्याग और ऋषियों का-सा सत्य है, जिसमें बालकों की-सी सरलता और योद्धाओं की-सी वीरता है। आपके न्याय और धर्म की चर्चा उसी पुरुष के मुँह से सुना करती थी। अगर यही उसका यथार्थ रूप है, तो मुझे भय है कि इस आतंक के आधार पर बने हुए राज-भवन का शीघ्र ही पतन हो जायगा, और आपकी सारी कीर्ति स्वग्न की भाँति मिट जायगी। जिस समय आपके ये निर्दय हाथ बाबू चक्रधर पर उठे, अगर उस समय मैं वहाँ होती, तो कदाचित् कुन्दे का वह वार मेरी ही गर्दन पर पड़ता। मुझे आश्चर्य होता है कि उन पर आपके हाथ उठे क्योंकर। उसी समय से मेरे मन में विचार हो रहा है कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु तो नहीं है?
मनोरमा के मुख से ये जलते हुए शब्द सुनकर राजा दंग रह गये। उनका क्रोध प्रचण्ड वायु के इस झोंके से आकाश पर छाये हुए मेष के समान उड़ गया। आवेश में भरी हुई सरल-हृदया बालिका से वाद-विवाद करने के बदले उन्हें उसपर अनुराग उत्पन्न हो गया। सौन्दर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन जाता है। आसुरी शक्ति भी सौन्दर्य के सामने सिर झुका देती है। राजा साहब नम्रता से बोले—चक्रधर को तुम कैसे जानती हो?
मनोरमा—वह मुझे अँगरेजी पढ़ाने आया करते हैं।
राजा—कितने दिनों से?
मनोरमा—बहुत दिन हुए।
राजा—मनोरमा, मेरे दिल में बाबू चक्रधर की जितनी इज्जत थी और है, उसकी चर्चा करते हुए शर्म आती है। जब उन पर इन्हीं कठोर हाथों से मैंने आघात किया, तो अब ऐसी बातें सुनकर तुम्हें विश्वास न आयेगा। तुमने बहुत ठीक कहा है कि प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु हैं। एक वस्तु चाहे न हों; पर उन में फूल और चिनगारी का सम्बन्ध अवश्य है। मुझे याद नहीं आता कि कभी मुझे इतना क्रोध आया हो। अब मुझे याद आ रहा है कि यदि मैंने धैर्य से काम लिया होता, तो चक्रधर चमारों को जरूर शान्त कर देते। जनता पर उसी आदमी का असर पड़ता है, जिसमें सेवा का गुण हो। यह उनकी सेवा ही है, जिसने उन्हें इतना सर्वप्रिय बना दिया है। अँगरेजों की प्राण-रक्षा करने में उन्होंने जितनी वीरता से काम लिया, उसे अलौकिक कहना चाहिए। वह द्रोहियों के सामने जाकर न खड़े हो जाते, तो शायद इस वक्त जगदीशपुर पर गोलों की वर्षा होती और मेरी जो दशा होती, उसकी कल्पना ही से रोएँ खड़े होते हैं। वह वीरात्मा हैं और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन-पर्यन्त दुःख रहेगा।
विनय क्रोध को निगल नाता है। मनोरमा शान्त होकर बोली—केवल दुःख प्रकट करने से तो अन्याय का घाव नहीं भरता?
राजा—क्या करूँ मनोरमा, अगर मेरे वश की बात होती तो मैं इसी क्षण जाता